लुप्त होने की कगार पर ‘मंथनी गांव’ का गोमतेश्वर मंदिर
मंथनी के ‘गोमतेश्वर मंदिर’ की टूटी-फूटी दीवारों और लताओं से ढकी मूर्तियों को देखकर आपको यह एहसास होगा कि आप हजारों साल पुराने किसी बीहड़ में आ गये हैं। जानकार बताते हैं कि यह जगह पहले वैदिक शिक्षा का गढ़ हुआ करती थी। ये गांव वेद-शास्त्रियों से भरा हुआ था। माना जाता है कि मंथनी हजारों ब्राह्मणों का घर हुआ करता था।
‘मंथनी’ मतलब छाछ
यहाँ के बुजुर्गों का कहना है कि ‘मंथनी’ का मतलब छाछ से है। जिस तरह छाछ का मंथन एक बर्तन में किया जाता है, ठीक वैसे ही वैदिक मंत्रों का मंथन इस गांव में हुआ था। तो मंथनी को उसका नाम ‘मंत्र-मंथन’ से मिला।
‘गोतमेश्वर’ के नाम से भी जानते हैं
‘गोमतेश्वर मंदिर’ मुख्य रूप से भगवान शिव को समर्पित है। लोग इसको गोमतेशवर के नाम से भी जानते हैं। मंदिर में काले पत्थर का बना 1.25 मीटर लम्बा शिवलिंग गर्भग्रह में बेहद सुंदर तरीके से स्थापित है। मंदिर के प्रवेश द्वार के कमरे और गर्भग्रह के बीच दायीं ओर के कोने में भगवान गणेश की मूर्ति स्थापित है।
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मंदिर के प्रवेश द्वार पर काले पत्थर से बनी नंदी बैल की ख़ूबसूरत मूर्ति को देखा जा सकता है। कहा जाता है कि नंदी के कान और नाक आक्रमणकारियों द्वारा तोड़ दिए गये थे। इस समय मंदिर के हाल काफी नाज़ुक हैं, इसके बावजूद भी भगवान शिव और नंदी की मूर्ति आज भी काफी मशहूर है। मंदिर काफी हद तक ज़मीन में धंस गया है, मंदिर की छत और दीवार टूट गये हैं, मूर्तियां धुंधला गईं हैं।
सुशोभित करती है गोदावरी की कलकल
मंथनी गांव की उत्तरी दिशा में पवित्र ‘गोदावरी’ नदी बहती है। मंदिर पूर्व के बौद्ध और जैन संस्कृति की याद दिलाता है। जिससे पता चलता है कि मंथनी बौध और जैनी लोगों के लिए एक मुख्य स्थान हुआ करता था।
नए ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक, इस मंदिर को किसने बनवाया इसकी कोई जानकारी इतिहास में नहीं है। लेकिन भगवान शिव की मूर्ति वारंगल के हजारों स्तम्भों वाले मंदिर से काफी मिलती-जुलती है। ऐसा कहा गया है कि काकतीय शासकों ने पुराने मंदिर को नया लुक देने के लिए इसे पुनर्निर्मित कराया था।
ऐसा कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य जब मंथनी आये तो मंत्रों का सस्वर पाठ सुनकर बेहद प्रसन्न हुए और इस जगह को धर्म-पीठम की मान्यता दी। यहां विद्वानों द्वारा वेद, तर्क, व्याकरण, ज्योतिष और मिमांसा जैसे विषय संस्कृत में पढ़ाये जाते थे।
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