काठ की लकड़ियों पर चढ़ा काशी के घाटों का रंग
बनारस की कई कलाकृतियां और परम्पराएं अंदाज के कारण प्रसिद्ध हैं वह चाहे बनारसी साड़ी हो या कोई और. बनारस में सबका अपना एक अलग अंदाज है. वहीं लकड़ी के खिलौने और अन्य कलात्मक वस्तुओं ने भी बनारस की ख्याति को बढ़ाया है. बता दें कि काशी के कारीगर काष्ठ कला यानी लड़कियों पर हर दिन नए-नए प्रयोग कर रहे हैं . उसी कड़ी में कारीगरों ने बनारस के घाटों की खूबसूरती को काष्ठ पर उकेरा है. अलग-अलग तीन डिजाइन में इन घाटों के मॉडल तैयार किए गए हैं जो अब बाजार में धूम मचा रहे हैं.
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विदेशियों की भी पहली पसंद हैं काठ की कलाकृतियां
कारीगर काष्ठ कला के आयोजन में सिर्फ भारत से नहीं विदेशों से भी इसके ऑर्डर कलाकारों के पास आ रहे हैं. लकड़ी को उकेर कर बनाये गए बनारस के घाट वाले इन मॉडलों में गंगा आरती, मंदिर, नाव और पुरोहित नजर आ रहे हैं.
बनारस में पहली बार हुआ है प्रयोग
बनारस में पहली बार लकड़ी(काष्ठ) के कलाकारों की मदद से काष्ठ कला का आयोजन किया गया है. इसके जरिए दिल्ली लखनऊ चेन्नई भुवनेश्वर मुम्बई, बैंगलुरु, समेत दूसरे देशों के कई बड़े शहरों से इसके ऑर्डर कारीगरों के पास आ रहे हैं. इसकी डिजाइन शुभी अग्रवाल ने तैयार किया है. इसके बाद इसे काष्ठ कला पर उकेरा गया है.
डिमांड के मद्देनजर 5 और मॉडल होंगे तैयार
काष्ठ पर बनारस के घाटों को डिजाइन करने वाली शुभी अग्रवाल के अनुसार पर्यटकों की मांग के कारण ही घाटों की थीम पर मॉडल बनाए गये हैं. वहीं 5 और मॉडल की डिजाइन भी तैयार की जा रही है. अलग-अलग मॉडल काशी के अलग अलग थीम पर बनाए गए हैं. किसी मॉडल में घाट और गंगा आरती की खूबसूरती को दिखाया गया है तो किसी मॉडल में काशी के सुबह-ए-बनारस की तस्वीरों को उकेरा गया है. वहीं काशी के मंदिर जैसे विश्वनाथ मंदिर इत्यादि को भी लकड़ी पर उकेरा गया है.
6 से 8 हजार तक में बिक रहे मॉडल
फिलहाल 6 से 8 रुपये इनका मूल्य तय किया गया है, हालांकि बड़े स्तर पर निर्माण कार्य होने के बाद इसकी मूल्य में कमी आ सकती है. वहीं देश-विदेश से कई लोग इसको खरीदने में इच्छुक दिखाई दे रहे हैं.
किसी जाति विशेष से नहीं है सम्बंध
काष्ठ कला काफी दुर्लभ मानी जाती है. इसे सीखने में सालों लग जाते हैं वहीं इसको बनाने में कई दिनों की मेहनत लगती है. बता दें कि काष्ठ( लकड़ी) कला का सम्बन्ध बनारस से है न कि किसी जाति विशेष से. आमतौर पर काष्ठ-कला से संबंधित काम करने वालों को बढ़ई के नाम से पुकारा जाता है. हालांकि वह ऐसा पर्याप्त जानकारी न होने के कारण लोग कहते हैं. वास्तविकता यह है कि इस कला का सम्बन्ध सीखने और उसको करने से है. न कि किसी वर्ग अथवा जाति विशेष से.