सिर पर लकड़ी का बोझ रख बचपन तलाश रहा भविष्य
संकट से जूझते आदिवासियों की लकड़ियां ही आजीविका
चित्रकूट: जनपद के मानिकपुर पाठा इलाके की रहने वाली रानी का बचपन आजीवका चलने के चलते सिर के नीचे दबा जा रहा है. रानी ने बताया की जब बचपन ही भविष्य की चांटा है तो आजीवका के सिर पर बोझ है. रानी ने बताया आजीवका चलाने के लिए हमे जांगले में लकड़ी काटने के लिए जाना पड़ता है. कई घंटे जंगल में बिताने के बाद हम लगभग 20 किलो लकड़ी इकट्ठा कर उसे शहर में बेचते हैं. यही पैसे ही हमारी आजीविकाहै. पूरा दिन जंगल में बिताने के बाद शाम को भोजन के लिए कुछ पैसे जुटते हैं जिससे हम अपना और परिवार के सभी सदस्य भोजन करते है.” सिर पर लकड़ी का गट्ठर लादकर जंगल से लौट रही सुमित्रा (10 वर्ष) ठंड में सिकुड़ते हुए बताया कि बच्चे जंगल से लकड़ी काटकर जीविकोपार्जन करने को मजबूर हैं.
सरकारी योजनाओं से वंचित है आदिवासी
सरकार द्वारा बच्चों के हित के लिए चलाई जा रही योजनाओं का आदिवासी इलाकों में गांव के बच्चों को कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है. सुबह होते ही गांव के बच्चे कई किलोमीटर का सफर पूरा करने के बाद जंगलों से लकड़ी काटकर लाते हैं और बेचने के लिए शहर तक का सफर पूरा करते हैं. यहां के बच्चों की यह दिनचर्या बन चुकी है. निही,कोडरिया समेत कई गाँव में रहने वाले आदिवासी परिवारों के बच्चों का हाल भी सुमित्रा जैसा ही है. जंगलो से लकड़ी लाने वाले बच्चों को हर रोज दस किलोमीटर से अधिक का सफर करना पड़ता है. शहर की सड़कों पर घूम-घूमकर लकड़ियों का गट्ठर बेचते हैं. पूरे दिन की कड़ी मेहनत के बाद बच्चों को सौ रुपये से अधिक नहीं मिल पाते हैं. जिन्हें वह घर लौटकर अपने माता-पिता को दे देते हैं. आदिवासी परिवार के मुखिया ने बताया, ”हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे जंगल जाकर लकड़ी काटे, लेकिन हम मजबूर हैं.
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सरकारी काम का समय से नहीं होता भुगतान-
मानिकपुर के इलाकों में कोई काम धाम है नहीं मनरेगा में जो काम करते भी हैं तो उसका भुगतान भी समय से नहीं होता है शहर जाकर हम भी काम करते हैं, लेकिन उतना पैसा नहीं मिलता जिससे सभी का पेट भर सके. लकड़ी बेचने से जो पैसा बच्चों को मिलता है उससे खर्चा चलाने में मदद मिल जाती है. मानिकपुर पाठा इलाके में आसानी से ये देखने को मिल जाएगा जहां बच्चे स्कूल जाने के बजाए कई तरह के काम कर पैसे कमा रहे हैं.