3 दिसंबर 1984 की रात, हजारों की नहीं हुई थी सुबह
आंध्रप्रदेश के विशाखापट्टनम में एक मल्टीनेशनल कंपनी के प्लांट से गैस लीक होने से 11 लोगों की मौत हो गयी और सैकड़ों की संख्या में लोग बीमार हो गये। गैस लीक के इस कांड और दिल दहला देने वाली हुई मौतों ने तीन दिसंबर 1984 भोपाल के यूनियन कार्बाइड कंपनी में हुए गैस लीक का खौफनाक मंजर जेहन में ताजा कर दिया। इस कांड में 15 हजार से अधिक लोगों की मौत होने बात कही जाती है पर सरकारी आंकड़ों में यह संख्या चार हजार के आस पास ही थी। बहरहाल हम आपको भोपास की गैस त्रासदी को उस समय की फेमस मैगजीन धर्मयुग के जरिये बतायेंगे।
धर्मयुग के लिए इस घटना की रिपोर्टिंग वरिष्ठ पत्रकार और रचनाकार शरद जोशी ने की थी। धर्मयुग के 13 जनवरी 1985 अंक दो में भोपाल गैस त्रासदी को कवर स्टोरी के रूप में भोपाल गैस-नरमेध का दर्दनाक हाल हेडिंग से प्रकाशित किया गया । अंदर स्टोरी की हेडिंग मौत की बाहों में भोपाल दी गयी। रिपोर्ट में घटना के तकनीकी कारण से लेकर मानव संवेदना और व्यवस्था तक के हर पहलू को स्थान दिया गया। उस रिपोर्ट के कुछ अंश 36 साल पहले का भोपाल, जैसा शरद जोशी और उनके साथी फोटोग्राफर मुकेश पारपियानी ने देखा था…
वह भोपाल के जीवन की सामान्य सी रात थी। किसी को इस बात का पता नहीं था कि बहुत करीब बेरसिया रोड पर काली परेड के नाम के उस क्षेत्र में बना कारखाना यूनियन कार्बाइड उन्हें राक्षसी आंखों से घूर रहा है और बहुत ही जल्दी मौत अपनी परेड शहर में आरंभ कर देगी। वे नहीं जानते थे कि इस शहर पर जहरीली गैस का झरना आज राज फूट जाने की तैयारी में है।
अफसर रजाइयों में दुबके रहे-
बताया जाता है कि आधी रात को कारखाने के एक आपरेटर ने पहली बार यह महसूस किया कि गैस रिस रही है। सड़े बादाम सी गंध जिसे ठीक से व्यक्त नहीं किया जा सकता। मेथिल आइसो साइनाइट गैस यदि वह यही गैस थी। पानी के तेज धार से उसका शमन किया जा सकता था। आपरेटर महोदय ने वही किया। पर टंकी का दबाव नापने वाला पैमाना काम नहीं कर रहा था।
…कीड़ो के लिए सेविन नामक जहर बनानेवाले इस कारखाने में उत्पादन एक डेढ़ महीने से रुका पड़ा था। अत: कोई साठ टन गैस टंकी में जमा थी। आपरेटर शकील कुरैशी को समझ में नहीं आ रहा था कि वो क्या करे। तमाम प्रयास बेकार। इसी कोशिश में शकील कुरैशी बेहोश होकर नीचे गिर पड़ा। शेष जितने थे उल्टे पांव उल्टी दिशा में भागने लगे। हजारों की जानें जाने वाली थीं।
…कारखाने में मौत की उस भोपाली रात क्या घट रहा था कोई नहीं जानता। पर लोगों के अनुसार दिन में 11 बजे से ही गैस रिसाव के लक्षण सामने आने लगे थे। शकील कुरैशी और अन्य कर्मचारी उसे बंद नहीं कर पा रहे थे। चार बजे के करीब वह लिखित में अपने अफसरों को आगाह कर चुके थे। पर पांच बजे बिना समस्या का समाधान निकाले सब बड़े अधिकारी अपनी कारों और स्कूटर से कारखाने से बाहर आ गये। कहते हैं कि रात को फोन करने पर भी बड़े इंजीनियर या मैनेजर कारखाने तशरीफ नहीं लाये। लापरवाही का नमूना पेश करते हुए अपनी रजाइयों में दुबके हुए थे।
गली गली मंडराती गैस-
सायरन बाद में बजा होगा। रिसन रोकने के जिम्मेदार पहले अहाते से बाहर हो गये और लगे दौड़ने बेरसिया रोड पर। और उस क्षण वह जानलेवा गैस हवा के रुख के साथ भोपाल नगर की ओर बढ़ने लगी। मौत की लंबी जीभ ने सबसे पहले आस पास के लोगों के प्राण चाटने शुरु कर दिये। गैस उपर आकाश में नहीं जा रही थी। दो मंजिला घरों की उंचाई वाले गुबार की तरह सड़क पर और गली गली चल रही थी, फैल रही थी। शुरु में बहुत तेज और बाद में धीमे धीमे टहलती हुई वह यहां वहां भोपाल को लीलती जा रही थी।
पुराने भोपाल से नये खुले भोपाल की तरफ, पुराने शहर से टीटी नगर की तरफ। भागते, लड़खड़ाते, गिरते, मरते अंधेरे में रास्ता पहचानते वे मृत्यु से जीवन की ओर दौड़ रहे थे। यह उनका अंतिम प्रयत्न था। अंतिम दौड़ थी। जहरीली गैस के कारण फेफड़ों में दम नहीं रह गया था। धीरे धीरे देखे अनदेखे शहर लाशों और बेहोश पड़े लोगों से पटने लगा।
… कीड़े मारने की दवाई में जो गैस उपयोग में आती है वह उन्हें कीड़ों की मौत मा रही थी। कुछ जो गहरी नींद में सोये थे, इतनी गैस फेफड़ों में ले चुके थे कि सोते ही रहे। उठे ही नहीं। पूरे परिवार समेत मौत के मुंह में समा गये थे। लाशें बिछ रही थीं। उजाला फूटने तक सब उस हाहाकारी दृश्य से परीचित हो चुके थे।
… देर रात तक स्टेशन पर सवारी का इंतजार करने वाला घोड़ा भी मरा और उस पर बैठा तांगाचालक भी। टिकट बाबू टिकट बेचते बेचते चल बसा। आती हुई ट्रेनों को भोपाल आने से रोकने की सूचना आसपास के स्टेशनों को देते हुए स्टेशन मास्टर हरीश धुर्वे चल बसे।
जनता का आत्मनिर्णय-
सुबह अस्पतालों के बाहर अंदर गलियारों बरामदो मैदानों और सड़कों पर बीमार और मृत पड़े थे। इतनी मृत्यु आंसुओं को सुखा देती है। चारो ओर भौचक खामोशी नजर आ रही थी। किसी के मां बाप गये तो किसी के बच्चे, जो बिछुड़ गये थे वे परस्पर तलाश में लग गये थे। लोग लाशों के समुदाय में कफन उठा उठा कर अपनेवालों को पहचान रहे थे।
…बीमारों के आसपास लोग जुटने लगे। युवा डॉक्टरों से लेकर मेडिकल कालेज की फर्स्ट इयर की छात्राओं तक सभी डॉक्टर बन गये थे। घर घर मरीजों के लिए अतिरिक्त भोजन बनने लगा। लोगों ने जेब से नोट निकाल, आई ड्राप्स से लेकर गुलाब जल की बोतलों तक जो भी खरीद पाये अस्पतालों में ले जाकर दिया। यह भोपाल की जनता का आत्मनिर्णय था। उसमें नेतृत्व नहीं था, व्यवस्था नहीं थी, और आज यही कहते हैं कि यही उसका शुभ पक्ष था।
…मृत्यु का क्रम जारी था। आज सरकार पांच हजार कहती है, विरोधी छह हजार और लोग दस हजार। सरकार की गिनती का अपना तरीका होता है। पर जाने कितने अनजाने परदेशी, भिखारी, कोढ़ी, गरीब, अपंजीकृत कुली रेलवे के-उनके मरने पर किसकी गिनती।
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