जानें क्या, 2019 तक कायम रहेगा नरेंद्र मोदी का करिश्मा?

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गोरखपुर और फूलपुर के चुनावी नतीजे भारतीय जनता पार्टी के लिए एक बड़ा धक्का हैं क्योंकि जिन सीटों पर उन्हें हार मिली है वह उनके मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री की लाखों से ज़्यादा वोटों से जीती हुई सीटें थीं.

ये दोनों सीटें उसी उत्तर प्रदेश में हैं जिसने 2014 में नरेंद्र मोदी की ज़ोरदार जीत का रास्ता बनाया था. तो इस लिहाज से ये हार भारतीय जनता पार्टी के लिए ख़तरे का संकेत है.

हालांकि हर चुनाव को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखना चाहिए. ये उपचुनाव था और इसमें मतदान प्रतिशत काफ़ी कम था. तो कह सकते हैं कि ये दोनों चुनाव स्थानीय मुद्दे पर लड़े गए. इसके साथ साथ नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने प्रचार नहीं किया था.

सपा और बसपा एक हो गए

वहीं दूसरी ओर सपा और बसपा एक हो गए थे. यूपी में बहुजन समाज पार्टी का वोटबैंक 20 फ़ीसदी है, समाजवादी पार्टी का भी 20 फ़ीसदी रहा है, तो ये दोनों एक साथ हो जाएंगे तो उसके सामने किसी तरह की रणनीति के कामयाब होने की गुंजाइश कम होगी.

योगी आदित्यनाथ को झटका

हालांकि अभी उपचुनाव के दो नतीजों से ये कहना कि सामाजिक न्याय की लड़ाई की वापसी हो गई है, थोड़ी जल्दबाज़ी होगी क्योंकि ऐसा कहने के लिए कम से कम विधानसभा के चुनाव में इसका कामयाब होना ज़रूरी है.

पर इस बात में भी कोई शक नहीं है कि गोरखपुर की हार योगी आदित्यनाथ के लिए राजनीतिक धक्का है क्योंकि अपने गढ़ में उनकी हार हुई है. एक साल पहले ही वे मुख्यमंत्री बने हैं, लेकिन अपने गढ़ में उनकी हार बता रही है कि मतदाता उनसे ख़ुश नहीं हैं.

उन्हें सोचना होगा कि लोग वोट डालने क्यों नहीं निकले और निकले भी तो उनके वोट समाजवादी पार्टी में क्यों गए. यही बात केशव प्रसाद मौर्य के लिए भी कही जा सकती है.

बिहार के अररिया में भी हार का सामना

इन दोनों सीटों के अलावा भारतीय जनता पार्टी को बिहार के अररिया में भी हार का सामना करना पड़ा, जहां लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल को जीत मिली है. नीतीश कुमार और भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन को इस क्षेत्र में लोगों का समर्थन नहीं मिला.

हालांकि इसके बीच एक बात और भी ध्यान देने लायक है कि उपचुनाव में कोई रणनीति भी नहीं चलती. ये बात यूपी ही नहीं दूसरे राज्यों के उपचुनाव के नतीजों से भी जाहिर हुई है. लोकसभा के उपचुनाव में अब तक बीजेपी 10 सीटों पर चुनाव हार चुकी है. इससे साफ़ है कि भारतीय जनता पार्टी की मुश्किलें आने वाले दिनों में बढ़ने वाली हैं.

गठबंधन की राजनीति का कमाल

दरअसल, 2014 के आम चुनावों ने जहां ये संकेत दिया था कि क्षेत्रीय दलों के दिन लदने वाले हैं, वहीं अब यह स्पष्ट हो रहा है कि भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों को समाप्त नहीं माना जा सकता. गोरखपुर, फूलपुर और अररिया के चुनावी नतीजों ने क्षेत्रीय दलों को नया जीवन दिया है.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद, ख़ासकर बहुजन समाज पार्टी की स्थिति बहुत ख़राब हो गई थी. समाजवादी पार्टी भी कमज़ोर हो गई थी. ऐसे में उन्हें इस बात का एहसास हो गया था कि अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए साथ आना होगा. ऐसा ही प्रयोग 2015 में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने एक साथ आकर किया था.

दूसरी ओर चुनावी नतीजों के आने से ठीक पहले वाली रात सोनिया गांधी ने विपक्ष के नेताओं को डिनर पर बुलाया था, उसमें देश के 20 राजनीतिक दलों के नेता एकजुट हुए थे. ये वह नेता हैं जिनके दलों को अपने अपने राज्य में लोकसभा चुनाव के दौरान हार देखने को मिली थी, लेकिन विपक्ष के इन नेताओं के बीच अब इस बात की समझ बन रही है कि एक साथ होने पर वे नरेंद्र मोदी का विजय रथ रोक सकते हैं.

दरअसल ये भी समझना होगा कि 2014 में तस्वीर दूसरी थी. 2014 में भाजपा की बहुत कम राज्यों में सरकार थी. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे, वह यूपीए सरकार पर आक्रामकता के साथ सवाल उठा रहे थे. लोग उनके विकास की बातों पर भरोसा कर रहे थे. लेकिन 2018-19 में तस्वीर दूसरी है.

लोग पूछेंगे सवाल

देश के 21 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है. 2019 में लोग उनसे सवाल पूछेंगे. राज्य सरकारों के प्रति आम लोगों का गुस्सा बढ़ रहा है. लोगों में नाराज़गी बढ़ रही है, वे बीजेपी को हराने के लिए वोट कर रहे हैं क्योंकि उनसे जो वादे किए गए हैं, वो पूरे नहीं हो रहे हैं. मौजूदा समय में भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती यही है.

हालांकि उपचुनावों के नतीजों से ये भी नहीं कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी का जादू कम हो रहा है क्योंकि मौजूदा समय में वे देश के सबसे बड़े नेता हैं, उनकी अपनी लोकप्रियता बनी हुई है. लेकिन जब आम चुनाव लड़े जाते हैं तो कई राज्यों में आपको चुनौती देने के लिए क्षेत्रीय दल होते हैं.

मौजूदा समय में आप देखें तो कई राज्यों में ऐसे दल मौजूद हैं, जैसे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी हैं, ओडिशा में नवीन पटनायक हैं, तेलंगाना में टीआरए है, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल है और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी है, जो अपने-अपने क्षेत्रों में नरेंद्र मोदी को दमदार चुनौती दे सकते हैं. राज्य की जनता स्थानीय मुद्दे पर लोकसभा चुनावों में भी वोट करती है.

लोगों में बढ़ रही नाराज़गी

ये दल अगर आम चुनाव को भी स्थानीयता का रंग देते हैं तो आम लोगों के दिमाग़ पर छवि का कोई असर नहीं होता. नरेंद्र मोदी लोकप्रिय हो सकते हैं या उनके लोगों को लग सकता है कि वे बहुत लोकप्रिय हैं, लेकिन आम लोग सवाल पूछते हैं कि आपने जो वादे किए थे, उसका क्या हुआ, आपके मुख्यमंत्री ने क्या काम किया, या फिर एंटी इनकम्बेंसी का फ़ैक्टर बढ़ेगा. जब आपकी तमाम जगहों पर सरकार होगी, तो नाराज़गी भी ज़्यादा होगी.

भारतीय जनता पार्टी के सामने एक चुनौती और है. 2014 की तुलना में शहरी और ग्रामीण इलाक़ों में मोदी की लोकप्रियता के ग्राफ़ में अंतर तेजी से बढ़ रहा है. मोदी सरकार को लेकर ग्रामीण इलाक़ों में गुस्सा तेज़ी से बढ़ रहा है क्योंकि किसानों से जो भी वादे किए गए हैं, उसे अमल में नहीं लाया जा रहा है.

पिछले दिनों ही जिस तरह मुंबई की सड़कों पर महाराष्ट्र के किसानों का जो प्रदर्शन देखने को मिला है, वह एक तस्वीर है कि किस तरह से देश भर में किसानों के बीच गुस्सा बढ़ रहा है और वो प्रकट भी हो रहा है.

भारतीय जनता पार्टी को संभलने की ज़रूरत

कभी-कभी चकाचौंध में, इमेज मैनेजरों से घिरे लोग भूल जाते हैं कि हक़ीक़त क्या है. आप लोगों को जो सपने दिखाते हैं और असलियत में फ़र्क़ होगा तो उसका ख़ामियाज़ा आपको भुगतना होता है. वादे जितने बड़े होते हैं, ये डर उतना ही ज़्यादा होता है. इसलिए भारतीय जनता पार्टी को संभलने की ज़रूरत है.

2004 वाले शाइनिंग इंडिया के दौर में हमने देखा था कि किस तरह चमक-दमक के बीच में कांग्रेस ने क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन बनाकर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को बाहर का रास्ता दिखाया था.

अब शाइनिंग इंडिया तो नहीं है, लेकिन 2019 में नरेंद्र मोदी का न्यू इंडिया होगा जिसमें जनता नरेंद्र मोदी से ये ज़रूर पूछेगी कि आपके न्यू इंडिया से हमारे जीवन में क्या बदलाव हुआ है?

बावजूद इसके नरेंद्र मोदी अभी भी 2019 के लिए फ्रंट रनर ही हैं. अगर आबादी का गणित गठबंधन के साथ है तो नरेंद्र मोदी का अपना जादू तो कायम है. वे इंदिरा गांधी की तरह ही इस तरह का नारा गढ़ सकते हैं- वो कहते हैं कि मोदी हटाओ, मैं कहता हूं देश बचाओ. इसके अलावा 2004 में कांग्रेस उतनी कमजोर नहीं थी, जितनी अभी दिख रही है.

(साभार – BBC)

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