वन दिवस पर विशेष: सिर्फ पेड़ लगाने से नहीं बचेगी जैव विविधता
प्राकृतिक वन हमें जो देते हैं, वनीकरण उसका विकल्प नहीं बन सकता
इन दिनों वनीकरण की चर्चा बहुत होती है। जैसे-जैसे विभिन्न कारणों से प्राकृतिक वनों को काटा जा रहा है, यह चर्चा भी बढ़ती जा रही है। अक्सर यह पाया जाता है कि जब हम प्राकृतिक वनों को खोते हैं व उनके बदले में नया वनीकरण करते हैं, तो उनकी जैव विविधता पूरी तरह भिन्न और निम्न स्तर की होती है। वन का पूरा तंत्र एक-दूसरे पर निर्भर होता है। मिट्टी से जुड़े बैक्टीरिया हों, छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े हों, पादप प्रजातियां हों, जीव-जंतु हों, ये आपसी सहभागिता में जीते हैं।
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वनीकरण में पौधे तो रोप दिए जाते हैं, पर यह सहभागिता नहीं आती। स्थाई जैव विविधता, जिसका प्रकृति और पूरे तंत्र में अहम योगदान है, ऐसे वनों से उत्पन्न होती है, जिनको हम प्राकृतिक वनों का दर्जा देते हैं। लेकिन हमने पूरी दुनिया में प्राकृतिक वनों के साथ जो कुछ भी किया, उससे बड़े स्तर पर जैव विविधता को खो दिया। अब अगर प्रतिवर्ष 15,000 वर्ग किलोमीटर जंगल विकास की भेंट चढ़ा दिए जाते हैं, तो सिर्फ यही नहीं मानकर चलना चाहिए कि हमने वनों को खोया, बल्कि यह भी मान लेना चाहिए कि इससे जुडे़ हर तरह के पादप, जड़ी-बूटियां, छोटे जीव-जंतुओं और पानी-मिट्टी को भी खो दिया।
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पिछली एक सदी में हमने जैव विविधता सिर्फ इसलिए खोई है कि हमने प्राकृतिक वनों को खो दिया है। हमने 80 लाख वन्य प्रजातियों को खतरे में धकेलने की कोशिश की, जिससे यह पूरा तंत्र लड़खड़ा गया। 10 लाख से ज्यादा जीव-जंतु, पेड़-पौधे आज समाप्ति के कगार पर खड़े हैं। अभी 2019 में ही हमने एक हवाई स्नेल, बेशकिमती वाटरफिश व तीन पक्षी प्रजातियों को इस दुनिया से विदा कर दिया। यही नहीं, कई पौधों और मेंढक की दो प्रजातियां अब हमारे साथ नहीं हैं। दुनिया के 1,500 वैज्ञानिकों और करीब 145 विशेषज्ञों ने 50 देशों से जुड़ी एक रिपोर्ट तैयार की है, जिसमें पिछले 15 वर्षों में जैव विविधता का आकलन किया गया है। रिपोर्ट में जैव विविधता को पहुंचे नुकसान के लिए मानव के क्रिया-कलापों को ही सबसे बड़ा दोषी बताया गया है।
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जैव इंधन से उत्पन्न कार्बन डाई ऑक्साइड एक बड़े संकट के रूप में हमारी दुनिया के सामने है। हम यह मानकर चलते हैं कि हमारे जंगल इसमें से ज्यादातर उत्सर्जन को सोख लेंगे। लेकिन अब दुनियां के सारे उष्ण-कटिबंधीय जंगल धीरे-धीरे अपनी कार्बन सोखने की क्षमता को खो रहे हैं। यह बात अमेजन फॉरेस्ट में वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन के बाद सामने आई है। हमारे देश में भी उष्ण-कटिबंधीय और उपोष्ण-कटिबंधीय किस्म के वन हैं। और जिस तरह से हम प्रदूषण पैदा कर रहे हैं, इसका असर हमारी वन प्रजातियों पर भी पड़ेगा और जैव विविधता पर भी। ऐसे आंकड़े भी सामने आए हैं कि स्थानीय जीव-जंतुओं की प्रजातियों में वर्ष 1970 से लेकर आज तक काफी कमी आई है। करीब 40 प्रतिशत उभयचर, 30 प्रतिशत कोरल रीफ और बड़े जंतुओं में 10 प्रतिशत की कमी आई है, साथ ही हमने आज तक 680 रीढ़धारी प्रजातियों को खोया है। एक अन्य बड़े अध्ययन के अनुसार, जिस तरह से हमने वनों का सफाया किया और उनके साथ छेड़छाड़ की, उनकी जगह 70 प्रतिशत ऐसी प्रजातियों ने ले ली है, जिनका प्रकृति संरक्षण से सीधा संबंध नहीं है। इनमें पार्थेनियम, लैंटाना इत्यादि कई प्रजातियां हैं, जिन्होंने वनों में घुसपैठ ही नहीं की, बल्कि उनके एक बड़े हिस्से पर कब्जा भी जमा लिया है। आज 21 देश इन प्रजातियों के आक्रमण से त्रस्त हैं।
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हमें यह समझ लेना चाहिए कि प्राकृतिक वनों की उपस्थिति में ही बेहतर जैव विविधता फल-फूल सकती है। ऐसे में, आवश्यक यह हो जाता है कि वनों को अकेले सिर्फ वृक्षों और वनस्पति के रूप में न देखा जाए।
[bs-quote quote=”(ये लेखिक के अपने विचार हैं, यह लेख हिंदुस्तान अखबार में छपा है)” style=”style-13″ align=”left” author_name=”अनिल प्रकाश जोशी” author_job=”पर्यावरणविद” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/03/anil-prakash-joshi.jpg”][/bs-quote]
हम जब तक जैव विविधता को उससे जोड़कर नहीं देखेंगे, तब तक हम वनों का असली अर्थ नहीं समझ पाएंगे। जिसे हम वनीकरण कहते हैं, वह दरअसल सिर्फ हरियाली ग्रीन कवर को बढ़ता है, लेकिन यह कोई विकल्प नहीं है। प्रकृति लाखों-करोड़ों सालों के सामंजस्य से जैव विविधता वाले वनों को जन्म देती है, जिनको हम एक ही झटके में समाप्त कर देते हैं। इसकी भरपाई हम वृक्षारोपण के सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों से ही नहीं कर सकते। सच यह है कि प्राकृतिक वनों को बचाने का कोई विकल्प नहीं है।
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