‘अराजक मिष्ठान प्रेम’ की कहानी, हेमंत शर्मा की जुबानी
दिल्ली को अपनी कर्मभूमि बना चुके वरिष्ठ पत्रकार ‘टीवी-9 भारतवर्ष’ के न्यूज डायरेक्टर पर मन से बनारसी हेमंत शर्मा ने बनारसी मिठाइयों के इसी खास रस को ‘मिष्टान्न महाराज बचानू साव’ की स्मृतियों संग परोसने का जतन किया है
बनारसी चाहे जहां भी रहे उसका अंदाजे-बयां उसके बनारस मूल का होने की गवाही दे ही देता है। अगर ऐसा ही कोई बनारसी यहां की खास मिठाइयों की बात करे तो उसमें जो स्वाद आयेगा न। आ… हा… हा..। पूछिये ही मत। सच कहता हूं मिठाई के रस की तासीर में कई हजार गुने की बढ़ोतरी आपके स्वादेन्द्रिय और मन को तृप्त कर देगी।
फिलहाल दिल्ली को अपनी कर्मभूमि बना चुके वरिष्ठ पत्रकार ‘टीवी-9 भारतवर्ष’ के न्यूज डायरेक्टर पर मन से बनारसी हेमंत शर्मा ने बनारसी मिठाइयों के इसी खास रस को ‘मिष्टान्न महाराज बचानू साव’ की स्मृतियों संग परोसने का जतन किया है। लॉकडाउन के इस दौर में ‘स्वांत: सुखाय’ के भाव से फेसबुक की तश्तरी में परोसे गये उनके ‘रस व्यंजन’ को हम आपके लिए ठीक वैसे ही लेकर आये हैं। आराम से एक-एक कर स्वाद लीजिएगा बड़ा रस आयेगा…
लॉकडाऊन के चलते सत्तावन साल की उम्र में पहली बार ऐसा हुआ की पंद्रह रोज़ बिना मिठाई के बीता। मैं अराजक किस्म का मिष्ठान प्रेमी हूं। आखिर क्यों न होंऊ? हेमचन्द ने चिन्तामणि में लिखा है, “काम्यं कम्र कमनीयं सौम्यञ्च मधुरं प्रियम्, ब्राह्मणम मधुरम प्रियम।” अब ब्राह्मण हूं तो मिठाई तो प्रिय होगी ही। इसलिए हर दूसरे रोज़ बनारस से मिठाईयॉं जहाज़ और रेल के ज़रिए आती रहतीं हैं। बनारस, बीकानेर और इन्दौर के अलावा कहीं की मिठाईयॉं सोहाती नहीं हैं। इसलिए लॉकडाऊन में जब मिठाई की तलब न सही गयी, तो खुद ही बेसन का लड्डू बनाया। कुल साढ़े सत्रह लड्डू बने तो जिनमें आधा खुद ही खा गया। लड्डू बेजोड़ बने क्योंकि मिठाई के गुर मैंने बचानू से सीखे थे।
‘मिष्टान्न पुरुष’ थे बचानू साव
बचानू काशी के ‘मिष्टान्न पुरुष’ थे। झक सफ़ेद कुर्ता धोती और इत्र वाले बचानू 150 साल पुरानी बनारस की राजबन्धु मिठाई के दुकान के मालिक थे। बनारसियों के ‘मिष्टान्न महाराज’। बचानू बिरले इसलिए थे कि मेरे जैसे सैकड़ों लोगों में मिठाई खाने-खिलाने की समझ और संस्कार उन्हीं ने बनाए थे। इसलिए बचानू साव मेरे लिए खास थे। वे जब भी दिल्ली आते, हमारी रसोई में जाकर कुछ न कुछ ख़ास ज़रूर बनाते। राज किशोर गुप्त उर्फ बचानू साव बनारस की रईस परंपरा के हलवाई थे।
बनारस की मिठाई का एक सौ पचास साल का इतिहास बचानू की परंपरा में था। मिठाई में शोध, प्रयोग और पौष्टिकता बढ़ाने के उपायों में इनका कोई सानी नहीं था। उनकी कोशिश होती थी कि मिठाइयों को कैसे सेहतमंद बनाया जाए। वे बनारस की विभूति थे। महात्मा गांधी हों या पंडित नेहरू, मार्शल टीटो हों या इंदिरा गांधी या फिर सिरीमावो भंडारनायके या दलाई लामा, बचानू सबको खुद पकाकर भोजन करा चुके थे। इसलिए वे किसी और को कुछ समझते नहीं थे।
मिठाई में भी राष्ट्रप्रेम
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब तिरंगा फहराना जुर्म था और तिरंगा देखकर फिरंगी शासन भड़कता था, तब बनारस में बचानू साव ने तिरंगी बरफी का ईजाद किया। लेकिन मिठाइयों में रंग डालकर नहीं। काजू से सफेद, केसर से केसरिया और पिस्ते की हरी परत से तिरंगी बरफी बनाई। बाद में यह राष्ट्रीय आंदोलन की मिठाई बन गई। स्वतंत्रता संग्राम में एक हलवाई का इससे बेहतर योगदान क्या हो सकता है! बचानू साव सिर्फ मिठाइयों की पौष्टिकता ही नहीं, उसके अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र का भी खयाल रखते थे।
अगर काजू का मगदल गरीब आदमी की पहुँच से बाहर है तो वे काजू हटा, बाजरे का मगदल बनाते थे। उसकी तासीर और स्वाद वैसे ही रख उस सामान्य आदमी की पहुंच में ला देते थे। मगदल एक ऐसी मिठाई होती है, जो उड़द दाल, काजू, जायफल, जावित्री, घी और केसर से बनती है। यह स्मृति और पौरुष बढ़ाने वाली मिठाई होती है। आयुर्वेद और यूनानी ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। आपको कब्ज है तो काजू की मिठाई से रोग और बढ़ सकता है। पर अगर उसके साथ अंजीर मिलाकर बरफी बने तो यह दवा बनेगी, जो फायदेमंद होगी। बचानू के ऐसे कुछ अमोघ फॉर्मूले थे।
ऋतुओं के हिसाब से मिठाइयां-
कब, कौन सी और कैसी मिठाई खानी चाहिए, इसका ज्ञान मुझे उन्हीं से हुआ था। ठंड में वातनाशक, वसंत में कफनाशक और गरमियों में पित्तनाशक मिठाइयाँ होनी चाहिए। वात, पित्त और कफ। आयुर्वेद का पूरा चिकित्सा विज्ञान इसी में संतुलन बिठाता है। बादाम सोचने-समझने की ताकत बढ़ाता है, पर उसका पेस्ट कब्ज बनाता है। बादाम के दो भागों के बीच अनान्नास का पल्प डाल उन्होंने एक मिठाई बनाई ‘रस माधुरी’। इसमें फाइबर भी था और ‘एंटी ऑक्सीडेंट’ भी। नागरमोथ, सोंठ, भुने-चने के बेसन और ताजा हलदी से वे एक लड्डू बनाते थे ‘प्रेम वल्लभ’ जो कफनाशक था। स्वाद में बेजोड़। मिष्ठान्न निर्माण में वे सिर्फ ऋतुओं का ही ध्यान नहीं रखते थे बल्कि उसके डिटेल में भी जाते थे।
सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायण होने से उनकी मिठाइयों की तासीर और तत्त्व बदल जाते। बचानू और मिठाइयों का ऐसा गहरा नाता था कि वे मिठाई के साथ ही दुनिया छोड़ना चाहते थे। दिल्ली के एक बड़े अस्पताल मैक्स में जब उनके दिल का ऑपरेशन हुआ तो एक रोज वे डॉक्टर से उलझ पड़े। उनके कमरे में मिठाइयों के ढेर सारे पैकेट रखे थे। उन्हें देखने आने वालों को खिलाने के लिए। पर डॉक्टर को गलतफहमी हुई। उसने समझा कि हृदय की धमनियाँ बंद हैं, इतनी मिठाई कहीं वे खुद खा तो नहीं रहे हैं? आदेश दिया कि इसे कमरे से तुरंत हटाएँ।
वे हटाने को तैयार नहीं थे। पंचायत करने मैं गया। उन्होंने कहा, “जान भले चली जाए, पर मिठाई को मैं अपने से दूर नहीं करूँगा।” मैंने डॉक्टर से कहा, “वे खाते नहीं हैं, सिर्फ देखते हैं। मिठाइयों से उनका गहरा नाता है। मिठाई के बिना उनकी जिजीविषा कम हो सकती है। इसलिए मिठाइयों को उनके कमरे में ही रहने दें। बचानू साव का ऑपरेशन हुआ। वे ठीक होकर बनारस लौट गए। पर कुछ ही दिन बाद हमारी ज़िन्दगी में मिठास छोड़ खुद चले गए । इस लॉक डाऊन में में बचानू बहुत याद आ रहे है। हो सकता है इस दौर के लिए वे कुछ ख़ास मिठाई बनाते।
बचानू की देन है ‘सुप्रभातम्’
बचानू ‘सेमी-लिटरेट’ थे। पर धर्म, दर्शन, साहित्य और संगीत पर वे हर बनारसी की तरह बहस कर सकते थे। काशी विश्वनाथ मंदिर से जो ‘सुप्रभातम्’ गत चालीस वर्षों से प्रसारित हो रहा है, वह इन्हीं सज्जन की देन है।
पूरे देश के संगीतकारों-गायकों को मिठाई खिलाकर उन्होंने उनसे सुप्रभातम् गवा लिया। ‘सुप्रभातम्’ गाने के एवज में जब वे एम.एस. सुबुलक्ष्मी के पास पत्रं पुष्पम् का चेक लेकर पहुँचे तो सुबुलक्ष्मी ने चेक लौटा दिया और कहा, इसे आप अपने ट्रस्ट में लगाएं। दिन के हिसाब से यह प्रसारण हर रोज बदलता है। कोई ऐसा बड़ा संगीतकार नहीं है, जिसने ‘सुप्रभातम्’ न गाया हो। आज भी ‘सुबहे बनारस’ की शुरुआत इसी ‘सुप्रभातम्’ से होती है।
गलियों और गालियों के बाहर बनारस के सांस्कृतिक लिहाज से वे रत्न थे। हर साल ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को देश की सभी नदियों से जल लाकर वे काशी विश्वनाथ का अभिषेक करवाते थे। अभिषेक में प्रमुख जल बारी-बारी से किसी एक ज्योतिर्लिंग से आता था और उसी ज्योतिर्लिंग के पुजारी काशी विश्वनाथ का अभिषेक करते थे। देश की सांस्कृतिक एकता को मजबूत करने का उनका यह अनूठा प्रयास था। जो संस्कृति हमारे बाहर-भीतर हर जगह समाप्त हो रही है, बचानू उसे पुनर्जीवित करना चाहते थे। मिठाइयों के एवज में हम उन्हें लिफाफा देते, जिसमें कुछ शब्द होते, अर्थ नहीं। वे कहते, शब्द में भी तो अर्थ ही होता है। बचानू साव की स्मृति को प्रणाम।
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