आंचल का मोहताज है इंसान
किसी मनुष्य की जिंदगी जिन पहलुओं के साथ से इंसानी जिंदगी की शक्ल अख्तियार करती है वो और कुछ नहीं बल्कि कपडे का एक टुकड़ा आंचल होता है। यह टुकड़ा जब मां से जुड़ता तो अंचरा बन बेटे को बड़ी से बड़ी मुसीबत से न सिर्फ बचता है बल्कि उसे ज़िन्दगी जीने के हर पाठ को भी सिखाता है। इसी आंचल को दामन या पल्लू की भी पहचान हासिल है।
सिलसिलेवार जिंदगी के अलग अलग पड़ाव पर ये आंचल ही होता है जिसकी तलाश हम सब को होती ही है। जब कोई स्त्री अर्धांगिनी बनती है तो ये आंचल ही होता है जो इसका माध्यम बनता है। सात फेरों में महिला के साथ पुरुष इसी आंचल के जरिए जुड़ता है। या यूं कहें कि पुरुष इसी आंचल का सहारा लेकर नए जीवन की शुरुआत करता है। उम्र के इस पड़ाव पर वो जिस आंचल को थामता हैं वो ताउम्र आपके सुख दुख का साथी रहता है।
देवताओं में भी आंचल की चाह-
आंचल के और भी कई रूप होते है ये बड़ी बहन का हो या बुआ का हो या फिर भाभी का हो आप को इसकी करीबियत अच्छी लगती है। आंचल के किसी कोने में बंधी किसी गांठ की मानिंद रिश्तों की एक अजब पहेली का साथ भी आंचल से जुड़ा है। इंसानी जज्बातों से जुड़े इस आंचल की चाह हमारे देवताओं में भी रही है।
शायद यही वजह है कि भगवान शिव हनुमान के रूप में अंजनी पुत्र बने तो भगवान विष्णु कौशल्या की कोख से जन्मे। आंचल और रिश्तों के ताने-बाने को कृष्ण यशोदा और देवकी के साथ याद दिलाते हैं। यही नहीं गोपियों और उनके साथ कृष्ण का रास प्रतीक रूप में आंचल की शाश्वत जरूरत को बता जाता है। इस्लाम में भी मां को बहुत बड़ा मुक़ाम अता किया गया है कहते हैं कि माँ की दुआ में जन्नत की हवा होती है, मां के कदमों को बोसा देना काबा की दहलीज पर बोसा देने के मुतरादिफ़ माना गया है।
निःस्वार्थ होता है आंचल से रिश्ता-
किसी स्त्री के लिए भी मां बनाना दुनिया की सबसे बड़ी नेमत है जब कोई बच्चा गर्भ में आ कर पहली बार मां होने का एहसास करता है तो पहले तो वो इस एहसास से अचंभित होती है , ये अचम्भा इस बात का भी होता है कि कैसे उसके अंदर आने वाला जीव एक अलग जीव होते हुवे भी एक है। दोनों एक साथ सोते खाते जागते नौ महीना का सफर पूरा करते हैं इस दौरान वो अपनी जननी के गर्भनाल (अंबिकल कॉर्ड) से जुड़ा होता है न कि किसी पिता से।
इस नौ महीने में एक बेटी से मां बनने के सफर का जैसे जैसे पहले महीने के एहसास से शुरू होते हुवे आगे बढ़ता है वैसे वैसे उसके अंदर परिवर्तन होने लगता है ये परिवर्तन उस ज़िम्मेदारी का होता है जिसमे त्याग है समर्पण है अपने बच्चे के लिये मर मिटने का ज़ज़्बा है उसके लिए दुनिया से लड़ जाने की ताक़त है और अपने लिए नहीं अब सिर्फ बाकी ज़िन्दगी उसी के सुख दुःख के लिए जीने के संकल्प का है। माँ का अपने बच्चे का संबंध किसी स्वार्थ का नहीं होता वो तो निःस्वार्थ होता है। उसमे कोई कंडीशन नहीं होती जबकि दुनिया के सारे रिश्ते किसी न किसी स्वार्थ से जुड़े होते है।
न जाने कितनी राते मां अपने बच्चे के लिये जागती हुई गुजारती है उसकी ज़रा सी आह पर वो तड़प उठती है बच्चा चाहे जैसा हो तेज़ हो, बुद्धिमान हो, मंदबुद्धि हो , अपंग हो , अपाहिज हो , कुरूप हो पर मां के लिये तो वो दुनिया का सबसे सुंदर और योग्य बच्चा होता है जिस पर वो अपनी जान छिड़कती है उसकी हर तकलीफ और कष्ट को अपने हिस्से ले लेती है और उसे सुख प्रदान करती है जब हम नासमझ होते हैं तो मां के इन सारे कामो को उसकी जिम्मेदारी समझते थे लेकिन आज मां नहीं है , वो दुनिया से हमें छोड़ कर जब गई तो अचानक हम बड़े हो गए क्योंकि उसके रहते तक तो हम बच्चे ही थे और तब आज उसकी उस जिम्मेदारी का भाव समझ में आ रहा है जिसमे सिर्फ मेरे प्रति निःस्वार्थ प्रेम की तड़प ही थी। आज उस भाव को समझ कर आंख के सारे आंसूं बाहर आकर उसके पांव पखारना चाहते हैं पर आज वो नहीं हैं। खुशनसीब होते है वो इंसान जिसने माँ की खिदमत की , और मां की दुआये हासिल की।
स्वर्ग से भी ऊंचा है मां का स्थान-
मां अपने बच्चे को कभी किसी और का हिस्सा नहीं बनने देना चाहती लेकिन सृष्टि की संरचना को आगे बढ़ाने के लिए, अपनी ही तरह किसी स्त्री को मां बनने का सुख देने के लिये , समाज और परिवार का अंस बढ़ाने के लिये अपने युवा पुत्र को अपनी बहू के हांथों में समर्पित करती है और उसे मां के आंचल से हटा कर पत्नी के आँचल का सामीप्य प्रदान कराती है और फिर उनसे उत्पन्न संतति के अन्दर अपने पुत्र की छवि को देखते हुवे सारा प्यार और दुलार उड़ेलती है यही वजह है कि अनादिकाल से मां का स्थान स्वर्ग से भी ऊंचा मानते हैं अर्थात “जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”।
किसी मनुष्य की जिंदगी जिन पहलुओं के एक साथ जुड़ने से इंसानी जिंदगी की शक्ल अख्तियार करती है वो और कुछ नहीं बल्कि कपडे का एक टुकड़ा आंचल होता है। यह टुकड़ा जब मां से जुड़ता तो अंचरा बन बेटे को बड़ी से बड़ी मुसीबत से न सिर्फ बचता है बल्कि उसे ज़िन्दगी जीने के हर पाठ को भी सिखाता है। इसी आंचल को दामन या पल्लू की भी पहचान हासिल है। सिलसिलेवार जिंदगी के अलग अलग पड़ाव पर ये आंचल ही होता है जिसकी तलाश हम सब को होती ही है। जब कोई स्त्री अर्धांगिनी बनती है तो ये आंचल ही होता है जो इसका माध्यम बनता है। सात फेरों में महिला के साथ पुरुष इसी आंचल के जरिए जुड़ता है। या यूं कहें कि पुरुष इसी आंचल का सहारा लेकर नए जीवन की शुरुआत करता है। उम्र के इस पड़ाव पर वो जिस आंचल को थामता हैं वो ताउम्र आपके सुख दुख का साथी रहता है।
[bs-quote quote=”इस आर्टिकल के लेखक अजय सिंह हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं। ” style=”style-13″ align=”center” author_name=”अजय सिंह ” author_job=”वरिष्ठ टीवी पत्रकार” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/05/ajay-singh.jpeg”][/bs-quote]
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