कश्मीर में पत्थरबाजी और शिक्षा के बीच शुरू हुई ‘जंग’

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कश्मीर में सिर्फ पत्थरबाज ही नहीं, बल्कि देश के शीर्ष संस्थानों में अपनी कामयाबी का झंडा गाड़ने को आतुर मेधावी छात्र भी रहते हैं, जिनके भीतर हर वक्त कुछ कर गुजरने का जज्बा होता है लेकिन, घाटी के बद से बदतर होते हालात के कारण न तो उन्हें निर्बाध इंटरनेट सेवाएं मिल पा रही हैं और न ही किताबें। इंजीनियरिंग की तैयारी करने वाले घाटी के ऐसे छात्रों व सफलता के बीच पैदा हुई खाई को पाटने का बीड़ा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) के कुछ छात्रों ने उठाया है।

राइज (आरआईएसई) नाम के संगठन के माध्यम से मुबी मसुदी (आईआईटी-बॉम्बे), इंबेसात अहमद (आईआईटी-खड़गपुर), सलमान शाहिद (आईआईटी-खड़गपुर) और दिल्ली प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (डीटीयू) के सैफी ‘कश्मीर के छात्रों तथा अवसरों के बीच पैदा हुई खाई को पाटने के काम में लगे हैं।

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संगठन ने कहा, कश्मीर में यह मायने नहीं रखता कि छात्र ने गणित विषय ले रखा है या जीव विज्ञान। इसका भी कोई मतलब नहीं है कि वह किस क्षेत्र में करियर बनाना चाहते हैं। न तो उनके पास सही जानकारी है और न ही उन्हें मार्गदर्शन मिल पाता है। अन्य शहरों की तरह यहां सूचनाओं का प्रवाह आसानी से नहीं होता।

राइज के सह संस्थापक आईआईटी खड़गपुर से भौतिकी विज्ञान में एम.एस. कर चुके अहमद ने कहा, हम छात्रों को सही समय पर सही सूचनाएं प्रदान करते हैं, ताकि वे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर सकें, अपनी सोच को आकार दे सकें। साथ ही हम उन्हें बेहतरीन शैक्षणिक सुविधाएं भी मुहैया कराते हैं।

उन्होंने कहा, “संगठन ने साल 2012 में चार छात्रों से शुरुआत की थी, जबकि मौजूदा वक्त में हमारे पास 200 छात्र हैं। पिछले साल राइज ने चार छात्रों को आईआईटी में भेजा, जबकि इस साल 40 छात्रों ने एनआईटी की प्रवेश परीक्षा पास की है।

उन्होंने ने कहा, अगर पिछले साल कर्फ्यू की समस्या सामने नहीं आती, तो हमारा प्रदर्शन कहीं बेहतर होता। वर्तमान में हमारा लक्ष्य छात्रों को आईआईटी तथा एनआईटी में दाखिला दिलाना है। पिछले साल एक छात्र का चयन प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी के लिए हुआ, जबकि एक छात्र का चयन यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के लिए हुआ। इंटरनेट पर पाबंदी, कर्फ्यू, हड़ताल इत्यादि ने चीजों को कठिन बना दिया है। किताबों की दुकानें बंद हैं और ई-कॉमर्स वेबसाइट यहां काम नहीं करते।

उन्होंने कहा, “अमेरिका के कॉलेजों में प्रवेश परीक्षा के लिए स्कोलास्टिक एप्टिट्यूड टेस्ट होता है, जिसके लिए आपको इंटरनेट की जरूरत होती है। यहां तक कि वे 2014 में आई भीषण बाढ़ से भी पीड़ित हैं। उन्होंने कहा, “हमने अपनी किताबों से यहां एक पुस्तकालय की स्थापना की है। एक महीने से अधिक समय के लिए हमारा कामकाज ठप रहा। इसका नतीजा यह होता है कि छात्रों के भीतर मनोबल की कमी हो जाती है, क्योंकि उनके अंदर पहले ही यह भावना घर कर गई होती है कि किसी अन्य शहर के छात्र पहले से ही उनसे आगे हैं और ऐसे में जब कक्षाएं रद्द होती हैं, तो उनका बेशकीमती वक्त बर्बाद होता है।

पटना निवासी अहमद ने कहा, “एक बार जब छात्र को यह अहसास होता है कि वह पिछड़ रहा है, तो उसका मनोबल बढ़ाना जरूरी हो जाता है और यहीं हमारी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।

अहमद के संगठन की शुरुआत की कहानी भी रोचक है। एक शैक्षणिक कार्यशाला को लेकर अहमद कश्मीर दौरे पर आए थे, तब उन्हें अहसास हुआ कि भारत के इस उत्तरी राज्य में शैक्षणिक परिदृश्य बेहद दारुण है। इसके बाद वह मसूदी के संपर्क में आए, जो जम्मू एवं कश्मीर से ही हैं और उन्होंने साथ मिलकर हालात को बदलने का बीड़ा उठाया।

उन्होंने कहा, पिछले साल हमारे पास 110 छात्र थे, जिनमें से 40 छात्रों से कोई शुल्क नहीं लिया गया। बाकी छात्रों से 10,000 से 35,000 रुपये की बीच शुल्क लिया गया, जो चार महीने से लेकर दो साल की कोचिंग की अवधि पर निर्भर करता है। शुल्क इस पर भी निर्भर करता है कि छात्र कितना भुगतान करने में सक्षम है, उसकी वित्तीय हालत कैसी है। यहां पैसा कोई मुद्दा नहीं है। कई ऐसे लोग हैं कि जो 10 गुना ज्यादा शुल्क अदा कर सकते हैं, लेकिन इतना पैसा लेकर भी आईआईटी या एनआईटी से कोई आपको यहां पढ़ाने के लिए नहीं आएगा। पैसे की यहां कोई कमी नहीं है, कमी है तो वह संसाधनों की।

अहमद ने कहा, “हमारे छात्रों में 30 फीसदी लड़कियां हैं। यहां लिंग अनुपात बेहद बढ़िया है। छात्रों के भीतर जज्बा है और हम उन्हें बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं।

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