अरे बू तौ बड़ो फ़्राडियर है, अरे, मारौ गोली
वह वर्ष 1941 के फाल्गुन माह की वासंती प्रातः थी, जब मेरे गांव की गली से बड़ी मूंछों वाले रोबीले थानेदार एक शानदार घोड़े पर सवार होकर गुज़र रहे थे. उनके पीछे-पीछे एक सिपाही मोटी सी लाठी लेकर चल रहा था. गली के किनारे स्थित अपने मकान के बरांडे में बैठे मुसद्दीलाल दुबे अपने बेटे से वार्तालाप में इतने मस्त थे कि उन्हें थानेदार के गली से गुज़रने का पता ही न चला.
यह वह समय था जब किसी गांव में यदि कोई पुलिस का सिपाही भी आ जाता था, तो यह घटना आस-पास के गांव तक के लिये एक गर्मागर्म ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाती थी. थानेदार चार-छः कदम ही आगे निकले थे कि मुसद्दीलाल अपने बेटे की किसी बात पर खिसियाकर बोले थे, “अरे मारौ गोली”. यह बात थानेदार साहब के कानों में पड़ गई थी और उन्होंने तुरंत अपना घोड़ा वापस मोड़ दिया था और दहाड़कर बोले थे.
“किसको गोली मारने को कहता है? चल थाने”. थानेदार ने उन्हें थाने चलने का हुक्म सुना दिया था और मुसद्दीलाल की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी. तब तक गांव के ज़मीदार सहित अन्य लोग आ गये थे. उन्होंने थानेदार को समझाने का प्रयत्न किया था, परंतु थानेदार तभी शांत हुए थे जब साथ के सिपाही ने मुसद्दीलाल को अलग ले जाकर उन्हें ऊंच-नीच दिखाते हुए उनसे 25 रुपये लेकर चुपचाप थानेदार साहब को थमा दिये थे. थानेदार साहब मेहरबानी खाकर छोड़ देने की मुद्रा बनाकर शान से चल दिये थे.
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गांव के लोगों ने ऐसी राहत की सांस ली थी जैसे ‘दयावान’ थानेदार साहब ने उन पर बहुत बड़ा एहसान कर दिया हो. आगे यह घटना गांव में एक मज़ेदार चुटकुला बन गई थी. अगर किसी के मुख से बातचीत के दौरान ‘अरे, मारौ गोली’ वाला मुहावरा निकल जाता तो दूसरा तुरंत हंसकर कहता. ’अरे, जा न कहियौ. पूरे पचीस रुपया लगययैं.’ आज भी मेरे गांव में यह चुटकुला प्रचलित है कि ‘अरे मारो गोली’ कहने की कीमत पूरे पच्चीस रुपये होती है.
अनेक कवियों की कविताओं में एवं कथालेखकों की कहानियों में ग्रामवासियों के पारस्परिक प्रेम, सहयोग, उदारता एवं साफ़दिली का बखान सुनकर मैं अचम्भित हो जाता हूं. उपरोक्त घटना में थानेदार के फ़्रौड के प्रति किसी के मन में भर्त्सना जागृत नहीं हुई थी और मुसद्दीलाल के प्रति शायद ही किसी को सहानुभूति जागी हो, वरन वह गांव में जगहंसाई के पात्र अवश्य बन गये थे.
स्वतंत्रता प्राप्ति के सात वर्ष पूर्व मेरा जन्म ग्राम मानीकोठी, जनपद इटावा (अब औरैया) में हुआ था. मैंने जब से होश सम्हाला था, दिन-प्रतिदिन गांव वालों के पारस्परिक व्यवहार में फ़्रौड की मानसिकता की अनुभूति करता रहा था. सदियों की दासता, निराशा, निर्धनता एवं निर्बलता ने तुच्छता (टुच्चेपन) को हमारे सामाजिक जीवन का एक सामान्य व्यवहार बना दिया था. ग्रामीण समाज में जातिवादी जड़ता, निरीह का सम्वेदनहीन शोषण एवं मौका मिलते ही धोखा देने की लालसा की पराकाष्ठा थी. धोखा खाये व्यक्ति के प्रति सहानुभूति अथवा सहायता का भाव आविर्भूत होने के बजाय उसे हंसी में उड़ाने का पात्र बना दिया जाता था.
मेरे गांव में किसी सबल द्वारा दूसरों को धोखा देने की घटना उजागर होने पर उस सबल को यह कहते हुए हंसकर माफ़ कर दिया जाता था- ‘अरे बू तौ बड़ो फ़्राडियर है’. सबल फ़्राडियर को माफ़ करना हमारे समाज की सोच में ऐसा गहरा रच-बस गया था कि अब तक अपने अस्तित्व को बनाये रखे है. हां, उसने अपना स्वरूप परिवर्तित परंतु प्रभाव क्षेत्र परिवर्धित कर दिया है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
(महेश द्विवेदी उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं। प्रस्तुत लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है। यह लेखमाला के रूप में लगातार प्रकाशित हो रहा है। यह उस कड़ी का पहला लेख है। इसे लगातार प्रकाशित किया जाता रहेगा।)