हम ख़ुद ही अपने रचना संसार की विविधता ख़त्म कर रहे हैं

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मैं हिन्दी साहित्य जगत को बहुत धीरे धीरे और देर से जानने वाला पाठक हूँ। दावा तो नहीं कर सकता कि सभी हिन्दी साहित्य प्रेमियों से फेसबुक पर जुड़ा हूँ मगर कई बार लगा है कि बहुत कम ऐसे हैं जो दूसरे का लिखा या दूसरे का किया सेलिब्रेट करते हैं।
अपने रचना संसार की विविधता ख़त्म कर रहे हैं
कृष्णा सोबती को ज्ञानपीठ मिला, इस पर शुरूआती बधाई प्रतिक्रिया से ज़्यादा किसी को कुछ लिखते या लिखे हुए को शेयर करते नहीं देखा। नए रचनाकार अपने समकक्षों की भी बात कम ही करते हैं। हम ख़ुद ही अपने रचना संसार की विविधता ख़त्म कर रहे हैं।
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अशोक वाजपेयी को भी बहुत बाद में जाना। सार्वजनिक लेख को छोड़ दें तो उनकी कविताओं को बहुत कम पढ़ा मगर कई समारोहों में आते जाते प्रणाम-पाती होती रही है।
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कोई पाँच मिनट भी बातचीत नहीं होगी। बहुत कम लोग होते हैं जो संसाधनों के पास से गुज़रते हैं मगर संस्थान बना पाते हैं। हो सकता है उनसे असहमति रखने वाले ज़्यादा हों तब भी हिन्दी जगत को अपने भीतर के लोगों को उसी समय में नोटिस लेना चाहिए जब वो कुछ कर रहे हों। उन्होंने पिछले दो तीन साल में कविता को लेकर जो कुछ किया है उसकी सराहना होनी चाहिए ।
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मूल भाषा और उसका अंग्रेजी अनुवाद दोनों है
अशोक वाजपेयी ने कई भाषाओं के युवा कवियों का दिल्ली में दो दिन तक कार्यक्रम किया।उस मौके पर कविताओं का जो संकलन निकाला, वो कंटेंट में तो उम्दा है ही, देखने में भी ख़ूबसूरत है। सोलह भारतीय भाषाओं के कवियों की रचना का संकलन है। भूख पर गुजराती कवि कांजी पटेल की कविता पढ़ सकते हैं। मूल भाषा और उसका अंग्रेजी अनुवाद दोनों है। इसी तरह अखिल भारतीय परंपरा में संशय और असहमति पर तीन हज़ार वर्षों की रचना का संकलन और सम्पादन लाजवाब है। मैंने इसकी भी किसी और से चर्चा नहीं सुनी। लगता भी नहीं कि अशोक वाजपेयी को फर्क पड़ता है। वो अपनी क्षमता अनुसार दूसरों के लिए किए जा रहे हैं।
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रायपुर में मुक्तिबोध पर दो दिनों का कार्यक्रम हो रहा है
कितना मुश्किल होता होगा फिर भी इसी समय में कोई जोड़ रहा है तो उस पर बात सामने से क्यों नहीं होती है। यह बात करने वालों की त्रासदी है। हमारी चुप्पियों का अपना ही संसार कितना तंग और जटिल है। रायपुर में मुक्तिबोध पर दो दिनों का कार्यक्रम हो रहा है। बहुत ज़्यादा नहीं मालूम लेकिन जब सत्याग्रह डॉट कॉम पर अशोक वाजपेयी का लेख देखा तो थोड़ी सी श्रद्धा उमड़ आई। हमारे समय में जो कर रहा है, उसकी बात होनी चाहिए। मैं बहुत प्रभावित हूँ और भावुक भी कि कोई कुछ कर रहा है। शानदार अशोक जी। वेल डन।
 (नोट : ये लेख रवीश कुमार के फेसबुक पेज से लिया गया है)
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