शिव की नगरी काशी में ‘पाकिस्तानी महादेव’ की कहानी, कैसे पड़ा मंदिर का ये नाम ?
शिव की नगरी काशी जहां के कण-कण में भगवान शिव वास करते हैं। यहां आपको भगवान शिव के छोटे-बड़े असंख्य मंदिर देखने को मिल जाएंगे। धर्म और आध्यात्म की नगरी काशी का इतिहास वर्षों पुराना है। और यहां भगवान शिव स्वयं विश्वेश्वर स्वयंभू ज्योर्तिलिंग के रूप में विराजते हैं। लेकिन शिव की नगरी काशी में भोलेनाथ का एक मंदिर है जो पाकिस्तानी महादेव के नाम से भी जाना जाता है। यह शिवलिंग अपने आप में आजादी के बाद हुए विभाजन की दास्तान संजोए हुए है।
काशी में पाकिस्तानी महादेव का मंदिर शीतला घाट पर स्थित है। स्थानीय लोगों के अनुसार, सरकारी दस्तावेजों पर इस मंदिर का नाम पाकिस्तानी महादेव के नाम पर दर्ज है। श्रावण के महीने में पाकिस्तानी महादेव के दर्शन के लिए काफी संख्या में क्षेत्रीय लोग पहुंचते है। तो आइए अब जानते है कि इस मंदिर का नाम पाकिस्तानी से क्यों जोड़ा जाता है। दरअसल, बटवारें के दौरान यह शिवलिंग एक हिंदू परिवार अपने साथ लाहौर से लाया था। यही घटना बाबा के अजीबोगरीब नामकरण का आधार बनी। पाकिस्तान का नाम आते ही भारतीयों में दुश्मन देश की छवि कौंध जाती है, लेकिन महादेव की महिमा देखिए कि काशी में वह पाकिस्तानी महादेव के नाम से प्रतिष्ठित हुए हैं। पाकिस्तानी महादेव का यह शिवलिंग शीतला घाट पर स्थापित किया गया है।
क्या है कहानी…
यह बात सन 1947 हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे के समय की है। उन दिनों देश में हालात कुछ ठीक नहीं थे। पूरा देश दंगों की आग में जल रहा था। इसी दौरान बंगाल में भी दंगा भड़कने से वहां के लोग देश के अन्य हिस्सों में पलायन को मजबूर हो गए। इनमें से एक जानकी बाई बोगड़ा का परिवार भी जो पहले काशी के ही रहने वाले थे। पश्चिम बंगाल से पलायन कर फिर से यहां आ गए।
बंगाल में जहां इनका परिवार रहता था, उन्होंने वहीं एक शिवलिंग की स्थापना की थी। जिसे पलायन के समय काशी ले आए। परिवार के साथ जब ये मछोदरी स्थित शीतला घाट किनारे गंगा में शिवलिंग का विसर्जन करने लगे तो वहां के कुछ पुरोहितों ने उन्हें ऐसा करने से रोका और मंदिर की स्थापना कराई।
बंटवारे के दौरान पश्चिम बंगाल से लाए गए इस शिवलिंग का लोगों ने नाम भी पाकिस्तानी महादेव रख दिया। जिसे आज भी इसी नाम से पूजा जाता है। मंदिर के पुजारी अजय कुमार शर्मा ने बताया कि इस मंदिर की स्थापना के लिए बूंदी स्टेट के अखाड़ा परिषद द्वारा स्थान दिया गया था। जिसे रघुनाथ व मुन्नू महाराज के सहयोग से स्थापित कराया गया। बाद में कई लोगों द्वारा मंदिर की पूजा का दायित्व लिया।
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