क्या एजेंडा मीडिया के लिए हर घटना एक ‘मौका’ है?
क्रिकेट के खेल में फ्री हिट बैट्समैन के लिए मौका होता है। अगर फ्री हिट शानदार छक्के में तब्दील तो फिर कहना ही क्या। आप सोच रहे होंगे कि बेमौसम की बरसात की तरह मैं क्रिकेट क्या ले बैठा।
जनाब बात क्रिकेट की नहीं है पर इसकी तर्ज पर है। जी हां बात हालिया मुदृदों करें तो एजेंडा मीडिया के लिए तब्लीगी जमात क्रिकेट के खेल का फ्री हिट साबित हुआ है। तब्लीगी जमात ने अपनी कारगुजारियों से एजेंडा मीडिया को फ्री हिट लगाने का मौका दिया जिसको इन चैनल्स के काबिल एंकर्स ने सिक्सर में कन्वर्ट करने में कोई चूक नहीं की।
जिसका नतीजा यह हुआ कि सिर्फ जमाती ही नहीं पूरी एक कौम को ही शंका की नजर से देखा जाने लगा है। तकरीबन पूरे देश में ऐसा माहौल बन गया कि अगर दाढ़ी है तो कोरोना भी उसके साथ ही होगा। एजेंडा मीडिया के लिए सिर्फ तब्लीगी जमात ही नहीं हर घटना एक मौका साबित हो रहा है।
कोरोना का तय कर दिया मजहब-
अगर हम भारतीय मीडिया की बात करें तो उसका एक वर्ग ऐसे राष्ट्रवाद को प्रमोट करता है जो आबादी के एक तबके को गैरमुल्क का या देशद्रोही साबित कर सके। उनका एक एंजेंडा फिक्स है। वो हर घटना को हिन्दू मुसलमान कर देते हैं। गो हत्या, लव जिहाद, मॉब लिचिंग जैसे तमाम मुददे उसी एजेंडे की देन थे। बात तब और भी गंभीर हो जाती है जब यह एजेंडा मीडिया कोरोना बीमारी को एक खास चेहरा देने की कोशिशों में लग जाता है। एजेंडा मीडिया ने कोरोना वायरस को एक खास रंग का बना दिया है। यानि की बीमारी का भी रंग हो गया है और उसका मजहब तय कर दिया गया।
अभी तक परचम, कपड़े, और दाढ़ी से जिनकी पहचान किये जाने का दावा किया जाता रहा, अब कोरोना भी उसकी पहचान बन गया. यानि कि मीडिया ने यह साबित कर दिया कि अगर वर्ग विशेष का है तो उसका कोरोना संक्रमित होना भी तय है। अखबार से लेकर टीवी के स्क्री न तक इस खास तबके के साथ किये जाने वाले भेदभाव की खबरें आने लगीं जो इस बात की तस्दीक हैं कि वो अपने मंसूबों में कामयाब हो रहे हैं।
बहरहाल यह सही है कि एजेंडा मीडिया इस तलाश में रहता है कि कब उसे मुददों को हिन्दूा बनाम मुसलमान के मंच पर सजाने का मौका मिले और यहां जमातियों ने उन्हेंक खुद ही यह मौका दे दिया। यह चंद जमातियों की ही देन है जिसका नतीजा एक पूरी कौम भुगतने को मजबूर है। इसके विपरीत अगर मीडिया चाहती तो जिस तरह का माहौल बनाया गया वह बनने से बच जाता। पर मुश्किल ये है कि वो तो ऐसा होने देना नहीं चाहते हैं।
बांद्रा में भी हिन्दू मुसलमान का एंगल-
इसके पहले मुंबई के बांद्रा स्टे्शन पर जुटी मजदूरों की भीड़ को लेकर भी सांप्रदायिक खेल करने की कोशिश की गयी। मीडिया और सोशल मीडिया पर यह खबर चलने लगी कि सभी मजदूर एक वर्ग विशेष के थे और लॉकडाउन को तोड़कर कोरोना वायरस को फैलाने के लिए यहां जुटे थे। मस्जिद से उन्हेंक ऐसा करने को कहा गया था। जबकि हकीकत इससे उलट थी। बांद्रा स्टे शन के पास ही एक मस्जिद है।
मजदूरों की भीड़ पास के पटेल नगर की थी। वो सब वहां एक अफवाह के चलते जुटे थे। जिसमें उनसे उनके घरों तक पहुंचाने के लिए रेल व खाने की व्यकवस्थाे किये जाने की बात थी। पर यहां तो एजेंडा मीडिया के सरपरस्तों ने इस हिन्दू् मुसलमान एंगल देना शुरू कर दिया। एक प्रमुख चैनल के सर्वेसर्वा ने तो बकायदा ट्वीट कर मामले को खास एंगल देने की कोशिश की। इस मामले में एक को पुलिस ने विनय दूबे नाम के व्यदक्ति को अरोपी बनाया। बात जो खुलकर सामने आयी वह उससे ठीक उलट थी जो मीडिया बता रहा था। मीडिया की कोशिश भरपूर थी पर वैसा हो नहीं पाया जैसा वह टीवी के एंकर्स चाहते थे।
पालघर को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश-
पिछले दिनों महाराष्ट्रद के पालघर में जो हुआ वह निश्चित रूप से पूरी इंसानियत को शर्मसार कर देने वाला वाकया था। यहां कुछ भी ऐसा नहीं था जो इस घटना को सांप्रदायिक मसले से जोड़ सके। ऐसी स्थिति में एजेंडा मीडिया इस बात की कोशिश में लग गया कि इस मामले को किस तरह से एक हिन्दूि बनाम मुसलमान का रंग दे दिया जाय। मीडिया के साथ सोशल मीडिया पर भी इस घटना को एक दूसरा ही नजरिया देने में लग गये। टीवी चैनल के एंकर साधू शब्दय के आगे हिन्दू शब्दत जबरिया लगाने लगे। अब उन्हेंय कौन बताये कि साधू है तो वो हिन्दू ही होगा। मुसलमान साधू नहीं होता। वह फकीर, सूफी या मौलवी होता है।
खैर जो हो घटना को अंजाम देने वालों को फांसी देने की मांग होने लगी। फांसी या सजा की मांग करना कोई गलत नहीं है। पर यहां एजेंडा मीडिया का झंडाबरदार एक टीवी चैनल ने तो हद ही कर दी। उसने तो यहां तक कह दिया कि साधुओं को मरवाने वाली कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी हैं और वे साधुओं की इस निर्मम हत्याम से खुश हैं। इस तरह के आरोपों का कोई तुक नहीं था। कांग्रेसियों ने हल्ला मचाना शुरु किया और देश में कई जगहों से इस संपादक के खिलाफ एफआईआर करा दी। संपादक पर गिरफ़तारी की तरवार लटकी तो घटना में चैनल के संपादक पर नाटकीय हमले का एक और पन्नाा जुड़ गया।
नाटकीय इसलिए कि जिस संपादक पर हमला हुआ है उसे एफ श्रेणी की सुरक्षा प्राप्तक है। खास यह रहा कि हमलावर मोटर साइकिल से थे और उन्होंने एसयूवी को पिछाड़ते हुए उस पर सिर्फ स्याही फेंकी। चलिए आगे चलते हैं। बात सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गयी। इस मामले में जो 100 से अधिक लेाग गिरफतार हुए हैं। जिनमें उस गांव की सरपंच भी है जो भाजपा की झंडाबरदार है। एजेंडा मीडिया के दूसरे चैनल्स ने भी इस घटना को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश में थे। खैर अब तो यह पूरा मामला कोर्ट में चला गया है। लेकिन एक बात सोचने की जरूर है कि क्या यही लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का असली चेहरा है ?
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