इस विध्वंस के बाद सृजन में “सदियां” लगेंगी, मानवीय संवेदनाओं को जिंदा रखिए
मानव समाजिक प्राणी है। सामूहिक जीव है। परिवार, समाज, प्रदेश, देश, विश्व और ब्रह्मांड सबकुछ हमारी सामूहिकता का विस्तार है। नितांत निजी कर्मों में भी “मैं” के साथ “हम” का बोध होता है। मृत्यु से अधिक निजी कुछ भी नहीं होता। लेकिन गौर से देखा जाए तो कोई भी शख्स अकेला नहीं मरता। उसके साथ उसके आसपास मौजूद लोगों के भीतर भी बहुत कुछ नष्ट होता है। मतलब मौत भी निजी और अकेली नहीं होती। उसमें भी सामूहिकता का भाव समाहित होता है।
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कल कुछ घंटों के लिए घर से बाहर जाना पड़ा। चारों तरफ भयावह चुप्पी थी। शांति नहीं चुप्पी थी। शांति और चुप्पी में बहुत फर्क होता है। शांति सृजन है। शांति सौंदर्य है। शांति प्रेम है। मन शांत हो तो सब अच्छा लगता है। आप जीवन की खूबसूरती को करीब से महसूस कर पाते हैं। लेकिन चुप्पी में भाव इसके विपरीत होता है। इसमें मौत की आहट होती है। डर होता है। एक अजीब किस्म की बेचैनी होती है। थोड़े समय के लिए अगर प्रकृति का सौंदर्य आपको सम्मोहित कर दे तो कुछ पलों बाद आसपास यम की मौजूदगी का अहसास हमें वर्तमान में खींच लाता है। और खौफ से भर देता है। चारों तरफ यही चुप्पी है। काल की आहट चारों तरफ से सुनाई देती है। इससे भयावह दौर और क्या होगा?
यही वजह है कि जिन गलियों और सड़कों पर देर रात तक चहल-पहल रहती थी, वो सब सूनी पड़ी थीं। लेकिन इन खौफनाक पलों में भी सोसायटी साफ सुथरी नजर आ रही है, मतलब सफाईकर्मी मुस्तैदी से अपना काम कर रहे हैं। गेट पर गार्ड तैनात नजर आए। बाहर निकलने पर पुलिस वैन खड़ी थी। थोड़ा आगे बढ़ने पर एक एंबुलेंस दनदनाती हुई आगे बढ़ी। सभी डॉक्टर मित्रों के चेहरे आंखों के सामने आ गए। सिर इन सभी के लिए श्रद्धा और सम्मान में झुक गया। मानव जाति के इस संघर्ष में इन सभी का योगदान हमारी संवेदना और सम्मान का हकदार है। यही मानवीय पहलू है जो हमें जिंदा रखेगी।
इस भयावह दौर का मुकाबला ताकतवर से ताकतवर शख्स, समाज और मुल्क अकेले नहीं कर सकता। यह लड़ाई अकेले की है भी नहीं। सामूहिक तौर पर लड़ करके ही इससे उबरा और बचा जा सकता है। इस लिहाज से बीते दो दिन से अमेरिका को दवा देने के फैसले पर जो एक नैरेटिव बनाने की कोशिश हो रही है वो गलत है। यह हमारे खिलाफ जाएगी। इसमें अमेरिका से भारत के मौजूदा रिश्तों की झलक जरा भी नहीं है। अमेरिका में इस समय करीब 45-50 लाख भारतीय रहते हैं। जिस न्यूयॉर्क में कोरोना वायरस सबसे अधिक फैला है। वहां पर पांच लाख से अधिक भारतीय रहते हैं। कैलिफोर्निया, सैन फ्रांसिस्को, लॉस एंजिल्स, वाशिंगटन, टेक्सास और डैलास सभी जगह भारतीयों की अच्छी खासी संख्या है। अगर बहुत संकीर्ण नजरिए से भी सोचा जाए तो भी कम से कम वो सभी तो अपने ही हैं। हमारे ही मूल और हमारे ही वंश के हैं। उनमें हमारा ही अंश है। तो क्या भारत अपने उन सभी लोगों को ऐसे ही छोड़ दे?
यही नहीं आज अमेरिका हमारा दूसरा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है। चीन के बाद उसका नंबर आता है। लेकिन हमारी अर्थव्यवस्था में अमेरिका का महत्व चीन से बहुत ज्यादा है। उसके साथ हमारा कारोबार सरप्लस है। मतलब अमेरिका को हम निर्यात ज्यादा करते हैं और चीन से हम आयात अधिक करते हैं। इसका सीधा अर्थ यह है कि हमारे उद्योग धंधों और लोगों के रोजगार के लिहाज से अमेरिका अधिक महत्वपूर्ण है। यही नहीं इससे हमें वह विदेशी मुद्रा भी मिलती है जो जरूरी चीजों के आयात में काम आती है। मतलब शुद्ध कारोबारी लिहाज से भी अमेरिका का मजबूत रहना हमारे लिए बहुत जरूरी है।
[bs-quote quote=”यह लेखक के अपने विचार हैं, यह लेखक के फेसबुक वॉल से लिया गया है।” style=”style-13″ align=”left” author_name=”समरेंद्र सिंह” author_job=”वरिष्ठ पत्रकार” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/04/Samarendra-Singh.jpg” author_link=”https://www.facebook.com/SamarendraOfficial”][/bs-quote]
ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में सभी देश एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. महामारी चीन से शुरू हुई और आज पूरी दुनिया इसकी चपेट में है। ऐसी महामारी से अकेले नहीं निपटा जा सकता। सभी को एक दूसरे को सहयोग करना होगा। आज हम उसी चीन से मदद ले रहे हैं जो एक लिहाज से दुनिया का गुनहगार है। और बहुत से मुल्कों की हम मदद भी कर रहे हैं। बहुतेरे देशों में इस वायरस की दवा खोजने पर शोध चल रहा है। कल को जिस मुल्क में भी यह दवा खोज ली जाएगी, वह मुल्क पूरी दुनिया को दवा सप्लाई करेगा। उसे वर्तमान की जरूरत को नजरअंदाज करते हुए भविष्य सहेजने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। वैसे भी मानव जाति की रक्षा के किसी भी संघर्ष में भविष्य से अधिक महत्वपूर्ण वर्तमान होता है।
अभी विध्वंस का दौर का। इस दौर में खुद को बचाए रखना हमारी पहली प्राथमिकता है। इस महामारी के गुजरने के बाद सृजन का दौर चलेगा। विध्वंस तो बहुत कम पलों में हो जाता है। सृजन में सदियां लग जाती हैं। लेकिन यह भी तभी मुमकिन होगा जब मानवीय संवेदनाएं जिंदा रहेंगी। हो सके तो उन्हें जिंदा रखिए।
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