सिरके वाला बना मिलेनियर…

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कहते हैं हर सफल पुरूष के पीछे एक महिला का हाथ होता है। एक ऐसा ही मामला सामने आया है। जहां एक सिरका का कारोबार करने वाला करोड़पति है और ये सब मुमकिन हो पाया सिरका के कारोबार करने वाले सभापति शुक्ला की पत्नी शकुंतला देवी की वजह से। करोड़पति सभापति शुक्ला और उनकी पत्नी की कहानी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है।

कहते हैं ‘An Idea Can Change Your Life’ यानी एक विचार आपकी जिंदगी बदल सकती है। इस कहावत को सच कर दिखाया है बस्ती के सिरका कारोबारी सभापति शुक्ल ने। 10वीं तक पढ़ें 60 साल के सभापति कभी पाई-पाई के मोहताज थे लेकिन आज वो अपने इलाके करोड़पति हैं।sirka 2बस्ती जिले के नेशनल हाईवे-28 किनारे स्थित सिरका कारोबारी सभापति शुक्ल बताते हैं कि कभी वो काम की तलाश में इसी हाईवे का खाक छानते थे और हर रोज मायूस होकर घर लौट आते थे। आखिरकार सभापति शुक्ल ने गुड़ का कारोबार शुरू किया, लेकिन कामयाबी हाथ नहीं लगी। रोजी-रोटी की तलाश में टुटते हौसलों के बीच उनकी पत्नी शकुंतला देवी उनके और उनके कारोबार के लिए वरदान साबित हुई, फिर सभापति की जिंदगी “All in Not Well से All is Well’’ होनी शुरू हो गई।

दरअसल शकुंतला देवी को एक दिन ख्याल आया कि क्यों न घर में रखे गन्ने की पेराई की जाए और इसका सिरका बनाया जाए। जिसके बाद शकुंतला देवी ने तकरीबन 100 किलों गन्ने की पेराई करवाई और सिरके का कारोबार शुरू कर दिया। ग्रामीण इलाकों में किसान क्रशर लगाकर गन्ने का रस निकालकर उसे किसी बर्तन में रखकर उसमें चटकदार मसाला मिलाकर सिरका बनाते हैं।

सिरका कारोबारी सभापति शुक्ल कहते हैं कि शुरुआत में उन्हें लगाता है कि सिरका मार्केट में बिकने वाली चीज नहीं है। लेकिन उनका ये काम चल निकला। इस कहानी को लगभग 10 साल बीत चुके हैं। सभापति कहते हैं कि उनका सिरका न सिर्फ स्टेट लेबल पर प्रसिद्ध हैं, बल्कि इसकी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर हो गई है।sirka 1खदोहा गांव के रहने वाले सभापति शुक्ल का गांव बस्ती जिले को धर्म नगरी अयोध्या को जोड़ता है। हजारों गाड़ियां हर दिन यहां से गुजरती हैं। लेकिन जिन्हें सभापति के दुकान की पहचान है वो यहां से सिरका और अचार लेकर जरूर जाते हैं।

खरीददार कहते हैं कि शुक्ल साहब के सिरके जैसा टेस्ट कहीं और नहीं मिलता। सभापति के सिरके की उद्योग ने न सिर्फ उनकी बल्कि पूरे गांव की किस्मत ही पलट दी है। सभापति शुक्ल का गांव अब सिरके वाला गांव के नाम से भी जाने जाना लगा है।

कहते हैं कि बोया गया मेहनत का बीज कभी जाया नहीं जाता, एक समय वो रंग जरूर लाता है। तभी तो सभापति शुक्ल विनम्र होकर कहते हैं कि उनके मेहनत के फल का नतीजा नहीं है, ये तो उन पर भगवान की कृपा है। उम्र के इस पड़ाव में आकर सभापति शुक्ल आज भी किसी युवा से कम मेहनत नहीं करते। कहते हैं भले ही मैं बूढ़ा हो गया हूं लेकिन दिल तो अभी भी बच्चा है।

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