हम भारतीयों के लिए उतर गया विश्वकप का बुखार
नई दिल्ली। भारतीय टीम को यही बोलना होगा -“आपके सम्मुख हम सभी नतमस्तक हैं विराट और शर्मिदा भी। जी हां, यही है वास्तविकता और एक कड़वी सच्चाई। मैं पाठकों से ही पूछता हूं। आप बताइए कोई एक ऐसा उदाहरण जिसमें एक अकेले शख्स ने किसी भी विश्व कप में दबाव से अविचलित रहते हुए फौलादी स्नायुतंत्रों और असाधारण फिटनेस के बल पर सीधे बल्ले यानी शास्त्रीय अंदाज से पूरी टीम की बल्लेबाजी का अंत तक अकेले अपने कंधों पर बोझ उठाने का हैरतअंगेज करिश्मा किया हो।
बल्ले से ऐसी प्रचंड निरंतरता मैंने अपने चार दशक के करियर में नहीं देखी। किसी मशीन की मानिंद बल्ला मैच दर मैच आग उगलता रहा और उसने टीम को टी-20 की श्रेष्ठता की जंग में 2007 का इतिहास दोहराने से महज दो कदम की दूरी पर ला खड़ा कर दिया था। किसी महामानव सरीखे प्रदर्शन से विराट ने केवल रन ही नहीं, अद्भुत फील्डिंग और विकेटों के बीच अविश्वसनीय तीव्रतम दौड़, सब कुछ तो झोंक कर रख दिया था, इस बल्लेबाजी के बादशाह ने।
मगर सब अर्थहीन बन कर रह गया गत रात वानखड़े स्टेडियम में जब वेस्टइंडीज ने बिना गेल की मदद के भी भारतीय अरमानों को मार डाला। कोहली की कोहीनूर जैसी 89 रनों की पारी पर फिर गया पानी और सात विकेट की करारी शिकस्त के साथ ही टीम इंडिया बाहर हो गयी।
तीन अप्रैल को कोलकाता के ईडन गार्डन्स स्टेडियम में जब वेस्टइंडीज चुनौती देगा तब भावुक भारतीय क्रिकेट प्रेमी शायद ही अपने टीवी सेट ऑन करेंगे। हो गया विश्वकप समाप्त उनके लिए। रोएंगे ब्राडकास्टर भी कि जिन्होंने फाइनल में करोड़ों का माल बटोरने का जो सपना संजो रखा था, वह भी मेजबनों की हार के साथ ही खंड-खंड हो गया।
इस दूसरे सेमीफाइनल के पहले न्यूज वल्र्ड इंडिया चैनल पर दो घंटे के लाइव शो (शाम पांच से सात बजे ) के दौरान जैसे ही धौनी, जो इस मामले में पूरे करियर के दौरान भाग्यशाली नहीं रहे हैं, सिक्के की उछाल में मात खाकर पहले बल्लेबाजी पर विवश हुए, पूरा पैनल ही सकते में था और चाहे खेल संपादक विनीत मल्होत्रा हों, अजय मेहरा रहे हों या चैतन्य नंदा अथवा विभांशु मिश्र और आपका यह नाचीज कि टॉस हारना भारतीय टीम के लिए बहुत बड़ा झटका है और जीत तभी हासिल होगी कि टीम दो सौ के पार गगनचुंबी स्कोर खड़ा करे।
नहीं हो सका ऐसा और मेजबान पंद्रह-बीस रन पीछे रह गए। 192 रनों के स्कोर की रक्षा उसी कीमत पर हो सकती थी जब गेंदबाजी सही राह पर हो। शुरू में लगा भी ऐसा जब सातवीं ही गेंद पर सबसे बड़ा खतरा क्रिस गेल जसप्रीत बुमराह की एक मारक यार्कर पर बोल्ड हो गए और नेहरा ने भी अपने दूसरे ओवर में मार्लान सैमुएल्स को जब विदा कर दिया तब लगा कि बस अब कैरेबियाइयों का काम लगने वाला है, लेकिन काम लग गया धौनी की टीम का क्योंकि यह भारतीय नजरिए से खुशी का अंतिम लम्हा था। बाद में तो बार-बार बाल नोंचने और हताशा में सिर झटकने का ही दृश्य उभरता रहा।
टूनार्मेंट में पहली बार टीम में बदलाव देखने को मिला जब चोटिल युवराज सिंह की जगह मनीष पांडेय को मौका मिला और आखिर लगातार रुला रहे शिखर घवन को बाहर का रास्ता दिखा कर रहाणे को शामिल किया गया। पहली बार बल्लेबाजी में अपेक्षित एकजुटता दिखी। 56 रन की सबसे बड़ी ओपनिंग हो गयी। शिल्पी की भूमिका में खरे उतरे रहाणे भी और रोहित ने भी पहली बार कुछ अचंभित करने वाले स्ट्रोक्स का दर्शन कराया। खुद को चौथे नंबर पर प्रोन्नत करने वाले धोनी ने भी अंतिम पांच ओवरों में कोहली के साथ विद्युतीय दौड़ लगाते हुए 64 रन जोड़े। फिर भी टीम वहां तक नहीं जा सकी जो उसे फाइनल की राह पर ले जाती।
टी-20 की यही अजब-गजब माया है कि एक गेंद परिणाम बदलने के लिए पर्याप्त रहती है। फ्लैचर की चोट के चलते आपात स्थिति में बुलाए गए लैंडल सिमंस तब महज 18 पर थे और प्वाइंट में बुमराह ने दायीं ओर गिरते हुए जबरदस्त कैच ले लिया। लेकिन यह क्या । भारतीयों की खुशी चंद सेकेंडों बाद क्षोभ और मायूसी में बदल गई, जब तीसरी आंख ने अश्विन की उस गेंद को नो बाल करार दे दिया।
यहीं अंत नहीं था। अनावश्यक बैक लेंग्थ के नाम पर शार्टपिच की झड़ी से रन लुटाने वाले हार्दिक की भी नो बाल पर लैंडल को 50 पर जीवनदान मिला। यही नहीं, तीसरी बार भी वह बचे जब उनका कैच लेने में जडेजा का पैर सीमा रेखा छू बैठा। लेकिन जो टनिर्ंग प्वाइंट रहा वह अश्विन की नो बाल थी और जो एक स्पिनर के लिए अक्षम्य अपराध माना जाता है। जो लैंडल तीन बार बचे तो उनकी 51 गेंदों पर 82 रनों की मैच जिताने वाली पारी भला क्यों नहीं बनती?
कहते हैं न कि अकूत दौलत पैसे की तृष्णा और भी बढ़ा देती है। बीसीसीआई इस खेल की बॉस है। आईसीसी तो नाम भर की ही है। मौसम आदि बाहरी तत्वों के दखल से आप बच सकते हैं यदि आप खेल को ही सर्वोच्च वरीयता देते हैं। देश में देर शाम ओस फील्डिंग साइड का खेल हमेशा से बिगाड़ती रही है।
मुंबई में बाद में बल्लेबाजी करने वाली टीम इसीलिए जीतती है और टॉस हारने वाली टीम यहां मैच गंवाती रही है। लेकिन ब्राडकास्टर को प्राइम टाइम चाहिए जो सात से दस बजे का होता है। खेल जाए भाड़ में। 50 ओवरों के मैच जरूर एक घंटा पहले होने लगे हैं। परंतु इस फॉर्मेट के टाइम में कोई बदलाव नहीं किया गया। ओस न गिरती तो रविंद्र जडेजा या अश्विन सहित गेंदबाजों को इतनी मार नहीं पड़ती।
मई-जून में कीजिए मैच, कौन रोकता है। पर इन महीनों में मुकाबले भाग्य से ज्यादा जीते जाते हैं, खेल से कम। ऐसे में कप्तान की चतुराई और कल्पनशीलता कम अहम नहीं होती पर मेजबान कप्तान के पास यही नहीं है। अन्यथा सुरेश रैना को गेंदबाजी दी जा सकती थी अश्विन के दो ओवर बचे रह गए। यदि इनका सामयिक उपयोग होता तो 20वां ओवर कोहली से कराने की नौबत नहीं आती।
लगे हाथ वेस्टइंडीज की भी चर्चा करनी होगी कि चार्ल्स रहे हों या 20 गेंदों पर 43 रनों की ताबड़तोड़ पारी खेल कर मैन आफ द मैच लैंडल के साथ अविजित रहे रसेल ने यह साबित जरूर किया कि टीम सिर्फ गेल पर ही आश्रित नहीं है और इंग्लैंड सावधान !!