स्पेसक्राफ्ट का कब्रिस्तान, जिसके बारे में जानकर दंग रह जाएंगे आप

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क्या आप जानते हैं अंतरिक्ष में भेजे गए स्पेसक्राफ्ट का धरती पर कब्रिस्तान कहां है? जी हां, धरती पर एक ऐसी जगह है, इसे पॉइंट नीमो कहा जाता है। यह स्थान ग्लोब पर जमीन से किसी दूसरे स्थान की तुलना में सबसे ज्यादा दूर है और वहां पहुंचना आसान नहीं है। दक्षिण प्रशांत महासागर में यह जगह पिटकेयर्न आइलैंड से उत्तर की ओर 2,688 किमी दूर है। ग्लोब पर यह डॉट माहेर आइलैंड (अंटार्कटिका) से दक्षिण की तरफ है। माना जा रहा था कि अनियंत्रित हो चुका चीन का स्पेस स्टेशन तियांगोंग-1 (हेवनली पैलेस) भी रविवार को यहीं गिरेगा। हालांकि अब इसके यहां समाधि लेने की संभावना नहीं है।

समंदर में कब्रिस्तान की तरह

इस तरह से दक्षिण प्रशांत महासागर का यह स्पॉट एक बार फिर चर्चा में आ गया है। इसे महासागर का दुर्गम स्थान कहा जाता है। टाइटेनियम फ्यूल टैंक्स और दूसरे हाई-टेक स्पेस के मलबे के लिए यह समंदर में कब्रिस्तान की तरह है। काल्पनिक सबमरीन कैप्टन जूल्स वर्ने के सम्मान में इसे स्पेस जंकीज या पॉइंट नीमो कहा जाता है।

कार्गो स्पेसक्राफ्ट दफन किए जाते हैं

जर्मनी में यूरोपियन स्पेस एजेंसी (ESA) में अंतरिक्ष मलबे के विशेषज्ञ स्टीजन लेमंस ने कहा, ‘इस जगह की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां कोई नहीं रहता है। अगर नियंत्रित तरीके स्पेसक्राफ्ट की दोबारा एंट्री कराई जाए तो इससे बेहतर कोई दूसरी जगह नहीं है। संयोग से, यहां जैविक रूप से भी विविधता नहीं है। ऐसे में इसका डंपिंग ग्राउंड के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है- स्पेस ग्रेवयार्ड कहना भी ज्यादा सही होगा। मुख्यरूप से यहां कार्गो स्पेसक्राफ्ट दफन किए जाते हैं।’

250 से 300 स्पेसक्राफ्ट दफन हो चुके हैं

उन्होंने बताया कि अब तक यहां करीब 250 से 300 स्पेसक्राफ्ट दफन हो चुके हैं। इनमें से ज्यादातर पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करने के बाद जल चुके थे। अब तक जो सबसे बड़ा ऑब्जेक्ट पॉइंट नीमो में समाया वह 2001 में रूस का MIR स्पेस लैब था। इसका वजन 120 टन था।

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लेमंस ने आगे कहा, ‘आजकल इसका इस्तेमाल रूस के प्रोग्रेस कैप्सूल्स के लिए किया जाता है, जो इंटरनैशनल स्पेस स्टेशन (ISS) में आते-जाते रहते हैं।’ खास बात यह है कि विशालकाय 420 टन के ISS की भी आखिरी मंजिल 2024 में पॉइंट नीमो ही है।

जानकारों का कहना है कि भविष्य में ज्यादातर स्पेसक्राफ्ट इस तरह के पदार्थ से डिजाइन किए जाएंगे कि री-एंट्री पर पूरी तरह से पिघल जाएंगे। ऐसे में उनके धरती की सतह से टकराने की संभावना ही लगभग खत्म हो जाएगी। इस दिशा में नासा और ESA दोनों काम कर रहे हैं और वे फ्यूल टैंक्स के निर्माण के लिए टाइटेनियम से ऐल्युमिनियम पर शिफ्ट हो रहे हैं।

नवभारत टाइम्स

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