पहल : गरीब महिलाओं को कर रहीं सैनिटरी नैपकीन के लिए जागरुक
ऐसे समाज में जहां माहवारी को लेकर तमाम तरह की गलत धारणाएं व वर्जनाएं पाई जाती हों, जम्मू एवं कश्मीर के सीमावर्ती गांव की दो महिला सामाजिक उद्यमी इस नियमित जैविक प्रक्रिया से जुड़ी वर्जनाओं के प्रतिरोध में सामने आई हैं।
ब्रांडेड उत्पादों को खरीदने में सक्षम नहीं हैं
वे ना सिर्फ जागरूकता फैलाने में जुटी हैं, बल्कि उन गरीब महिलाओं की मदद करने के लिए सैनिटरी नैपकिन बनाकर इनकी बिक्री भी करती हैं, जो ब्रांडेड उत्पादों को खरीदने में सक्षम नहीं हैं। मीर मुशर्रफ (18) और मुबीना खान (25) यहां एक अनाथालय में पली-बढ़ी हैं। उन्होंने अपनी उद्यमिता की यात्रा की शुरुआत दो साल पहले की थी और उन्हें अच्छी तरह से पता था कि उन्होंने किस कठिन काम को चुना है।
महिलाएं माहवारी के दौरान किस दौर से गुजरती हैं
मीर ने मीडिया को बताया, “हमने अनुभव किया है कि कश्मीर में महिलाएं, खासतौर से सीमावर्ती इलाकों की और ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं माहवारी के दौरान किस दौर से गुजरती हैं। यह केवल माहवारी से जुड़ी कलंक लगाने वाली बातों के बारे में नहीं है, यह इस दौरान स्वच्छता के बारे में भी है।”मुबीना ने कहा, “यह कभी भी आसान नहीं होने वाला था। हम इसे जानते थे कि कश्मीर में माहवारी के बारे में बात करना, यहां तक कि महिलाओं के साथ भी इसके बारे में बात करना आसान नहीं होगा। लेकिन, हम इस कलंक को परास्त करना चाहते थे।”
दोनों देशों की सेनाओं के बीच झड़पें होती रहती हैं
मीर मूल रूप से केरन गांव की हैं, जो राज्य की राजधानी श्रीनगर से करीब 100 किलोमीटर उत्तर में है। उन्होंने अपने पिता को अपनी युवावस्था में ही खो दिया था। उनके पिता किसान थे और रक्त कैंसर से पीड़ित थे। केरन, भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू और कश्मीर को विभाजित करने वाले नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पास का गांव है, जहां अक्सर दोनों देशों की सेनाओं के बीच झड़पें होती रहती हैं।
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मीर का परिवार सीमा पर अक्सर होने वाली झड़पों के कारण 1990 की शुरुआत में कुपवाड़ा आ गया। यह वह दौर था जब कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था और पाकिस्तान, सीमा पर गोलीबारी की आड़ में सशस्त्र घुसपैठियों को भारतीय सीमा में भेजता था। मीर की मां के पास अपने पति के मौत के बाद परिवार चलाने के लिए आय का कोई स्रोत नहीं था। ऐसे में उन्होंने अपनी बेटी को बसेरा-ए-तबस्सुम में दाखिल करा दिया, जो कुपवाड़ा में एक अनाथालय है, जिसे पुणे की गैर-सरकारी संस्था बार्डरलेस वर्ल्ड फाउंडेशन द्वारा चलाया जाता है।
पिता को महज ढाई साल की उम्र में ही खो दिया था
अनाथालय में मीर की दोस्ती ‘खुद उन्हीं की जैसी मानसिकता वाली’ मुबीना खान से हुई, जिन्होंने भी अपने पिता को महज ढाई साल की उम्र में ही खो दिया था। इस अनाथालय में ना सिर्फ लड़कियों को पाला पोसा गया, बल्कि उन्हें कुपवाड़ा में सामाजिक-आर्थिक बदलाव का दूत बनने के लिए उद्यमशीलता का कौशल भी सिखाया गया। कुपवाड़ा एक ऐसा क्षेत्र हैं, जहां की करीब 40 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है।
मैं हमेशा से महिलाओं के लिए कुछ करना चाहती थी
अनाथालय के अपने दिनों को याद करते हुए मीर और मुबीना बताती हैं कि किस प्रकार वे घंटों बातें करती थीं और अपने जीवन में जो करना चाहती थीं, उसकी योजनाएं बनाती थीं।मीर ने कहा, “मैं हमेशा से महिलाओं के लिए कुछ करना चाहती थी, खासतौर से वे जो सीमावर्ती इलाकों में रहती हैं। लेकिन, मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी महिलाओं से माहवारी के बारे में इस तरह खुलकर बात कर पाउंगी, सैनेटिरी नैपकिन के निर्माण को तो छोड़ ही दें।”
ऐसी बुराइयों के खिलाफ लड़ाई में सबसे बड़ी कठिनाई हम खुद हैं
उन्होंने कहा, “वास्तव में यह विचार मुबीना का था और आप जानते हैं कि क्यों।”मुबीना खान हमेशा इस बात से परेशान रहती थीं कि महिलाओं के साथ माहवारी के दौरान कितने बुरे तरीके से व्यवहार किया जाता है। उन्हें रसोईघर में जाने की अनुमति नहीं होती, वे प्रार्थना नहीं कर सकतीं। वे उन दिनों अछूत जैसी हो जाती हैं।
बुराइयों के खिलाफ लड़ाई में सबसे बड़ी कठिनाई हम खुद
मुबीना का गांव भी नियंत्रण रेखा के पास ही है, जिसका नाम हेलमतपोरा है। उन्होंने मीडिया से कहा, “ऐसी बुराइयों के खिलाफ लड़ाई में सबसे बड़ी कठिनाई हम खुद हैं। हम, एक महिला के रूप में परंपराओं में विश्वास करते हैं, जिसे तोड़ना कठिन होता है। मेरी बात पर भरोसा कीजिए, कई लड़कियों को इसके कारण स्कूल छोड़ना पड़ता है।”
गर्भाशय के कैंसर का खतरा काफी बढ़ जाता है
और, इसके साथ ही महिलाओं को माहवारी से जुड़ी अन्य स्वास्थ्य समस्याओं और स्वच्छता के प्रति भी जागरूक बनाने की जरूरत है। हजारों अध्ययन से निर्णायक रूप से यह बात सामने आई है कि माहवारी के दौरान कपड़े के इस्तेमाल से गर्भाशय के कैंसर का खतरा काफी बढ़ जाता है।मुबीना ने कहा, “हमें जब पहली माहवारी आई थी, तो हमारी मांओं ने हमें कुछ गंदे कपड़े दिए थे और कड़ाई से यह निर्देश दिया था कि इसके बारे में खुले तौर पर बात नहीं करनी चाहिए तथा परिवार के बाकी सदस्यों से दूर रहना चाहिए।”
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उन्होंने कहा, “आप कल्पना कर सकते हैं कि जब हम इस बारे खुले तौर पर बात करने के लिए बाहर निकलते हैं, तो वास्तव में लड़कियां हमारी ‘बेशर्मी’ के बारे में फुसफुसाती हैं। लेकिन, हमें कोई भी चीज रोक नहीं सकती।”
हर पैक पर 16 रुपये का लाभ होता है
दोनों लड़कियों ने स्कूलों, कॉलेजों और सामुदायिक केंद्रों में इस विषय पर बात करने के लिए सैकड़ों जागरूकता शिविरों का आयोजन किया है। उन्होंने सेनेटरी पैड के निर्माण के बारे में बताया कि रोजाना वे छह पीस के 250 पैक बनाती और हरेक पैक की कीमत 26 रुपये होती, जबकि बाजार में मिलने वाले सेनेटरी नैपकिन की कीमत औसतन 35 रुपये है। इसके बावजूद उन्हें हर पैक पर 16 रुपये का लाभ होता है।
इकाई में करीब 12 लाख रुपये का निवेश किया
उन्हें इस काम में बार्डरलेस फाउंडेशन ने मदद दी। श्रीनगर में फाउंडेशन की परियोजना अधिकारी इकरा जावेद ने बताया कि फाउंडेशन ने सेनेटरी नैपकिन की इकाई में करीब 12 लाख रुपये का निवेश किया। साथ ही साल 2016 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस तथा श्रीनगर की गैर सरकारी संस्था चिनार इंटरनेशनल (जो स्टार्टअप की मदद करती है) द्वारा स्टार्टअप प्रतियोगिता में हिस्सा लेने में इन लड़कियों की मदद की, जहां उन्होंने जीत हासिल कर 3 लाख रुपये का निवेश प्राप्त किया।
महंगी मशीनों पर करीब 9 लाख रुपये के निवेश की जरूरत
इसके बाद उन्होंने ‘हैप्पी च्वाइस’ की शुरुआत की। उन्होंने अपनी व्यापारिक इकाई को यही नाम दिया है। इस निर्माण केंद्र को कुपवाड़ा से 6 किलोमीटर दूर सिलकुटे में बार्डरलेस फाउंडेशन द्वारा चलाए जा रहे महिला विकास और सामाजिक उद्यमिता केंद्र, राह-ए-निस्वां में स्थापित किया गया है।हालांकि उनके द्वारा बनाई गई नैपकिन बाजार के मानकों जितनी अच्छी नहीं होती। इसके कारण उनकी बिक्री में गिरावट आने लगी। इसलिए इसमें सुधार के लिए उन्हें महंगी मशीनों पर करीब 9 लाख रुपये के निवेश की जरूरत है और इसके लिए वे फिलहाल निर्माण बंद कर निवेशकों की बाट जोह रही हैं।
हम तब तक माहवारी के बारे में बात करते रहेंगे
मीर कहती हैं, “अभी तक कोई निवेशक सामने नहीं आया है, लेकिन जब तक हम इसे पा नहीं लेते, प्रयास करते रहेंगे। और, हम इसे लेकर आश्वस्त हैं। “लेकिन, उनका जागरूकता अभियान जारी है। खान कहती हैं, “हम तब तक माहवारी के बारे में बात करते रहेंगे, जब तक हर कोई इसकी वर्जनाओं को तोड़कर इसके बारे में खुले तौर पर बात करना शुरू नहीं कर देता है। लड़ाई अभी जारी है। हम हारे नहीं है। हमने विराम लिया है।”
(यह लेख मीडियाऔर फ्रैंक इस्लाम फाउंडेशन के सहयोग से विविध, प्रगतिशील व समावेशी भारत को प्रदर्शित करने के लिए शुरू की गई एक विशेष श्रृंखला का हिस्सा है)
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