मिथिला पेंटिंग ‘कोहबर’ से मिली पहचान
खुद की पहचान बनाने और बच्चों को एक बेहतर कल देने के लिए उषा ने अपने जुनून को कभी कम होने नहीं दिया। धीरे-धीरे बच्चे बड़े हो गए थे, अब उषा के पास काफी खाली समय बचा रहता था। जिसका उपयोग उषा ने किसी ऐसे काम में लगाने की सोची जिससे उनका समय भी कट जाए और कुछ इन्कम भी हो जाए।बस इसी सोच के साथ ही उषा निकल पड़ी अपनी मंजिल की तरफ।
मिथिला कला से मिली नई पहचान
मिथिला कला को अपने भविष्य-निर्माण का धार बनाया, जिससे कि वे बचपन से ही परिचित थीं। उषा झा याद करते हुए बताती हैं, कि ‘पहले परिवारों में जब कोई शादी होती, तो सबसे पहले ‘कोहबर’ की दीवारों की रंगाई की जाती थी। आज शादी की तैयारी हॉल की बुकिंग और मेन्यू चुनने से शुरू होती है। उन दिनों की शुरुआत कोहबर से होती थी।’
दीवारों से उतर कर साड़ियों और कागजों पर कोहबर
इस सहज प्रतिभा का उपयोग करते हुए उन्होंने मिथिलांचल कला (जिसे मधुबनी कला भी कहा जाता है) का निर्माण शुरू किया और इस प्रकार दीवारों से उतर कर ये कला साड़ियों, कपड़ों और कागज पर जीवंत हो उठी। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहती हैं, ‘उन दिनों मैंने सोचा भी नहीं था, कि दीवारों पर उकेरी जाने वाली ये कला कमाई और परिवार चलाने का माध्यम बन सकती है, लेकिन आने वाले वर्षों में ये रोजगार का साधन बन गई।’
पेटल्स क्राफ्ट की शुरुआत
उषा झा की इसी सोच ने जन्म दिया पेटल्स क्राफ्ट को। ‘पेटल्स क्राफ्ट’ की शुरुआत 1991 में उषा झा के घर पटना के बोरिंग रोड से हुई, जहाँ से वे आज भी काम करती हैं। कलाकारों के लिए समर्पित एक कमरे से शुरू हुआ उनका काम अब पूरे घर में फ़ैल चुका है। रग्स पर करीने से रखे फ़ोल्डर्स, साड़ी, स्टॉल्स ग्राहकों के लिए तैयार रहते हैं।
Also read : फेसबुक नहीं ‘कैशबुक’ से होती है बात
उषा जी कहती हैं, ‘आज हमने आधुनिक मांगों को पूरा किया है और बैग, लैंप, साड़ी और घरेलू सामान सहित लगभग 50 विभिन्न उत्पादों पर मधुबनी पेंटिंग की है।’ वे हमें एक नैपकिन होल्डर दिखाती हैं, जो उनके अमेरिकी और यूरोपीय ग्राहकों में खासा पसंद किया जाता है।
उनके भिन्न-भिन्न ग्राहकों में, दौरे पर आये सरकारी और गणमान्य व्यक्तियों से लेकर दुनिया के विभिन्न देशों से आये पर्यटक भी शामिल हैं।
(अन्य खबरों के लिए हमें फेसबुक पर ज्वॉइन करें। आप हमें ट्विटर पर भी फॉलो कर सकते हैं।)