12 साल की उम्र में ढोना पड़ता था चावल के बोरे, आज हैं करोड़पति
जिंदगी में जो इसांन मुश्किलों से हार नहीं मानता है वो शख्स ही एक दिन इतिहास लिखता है। जिसने भी मुश्किलों से लड़ाई लड़ी है वो एक दिन सफलता की इबारत जरुर लिखता है। क्योंकि जब भी किसी ने अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ाई लड़ी है तो परिस्थितियों ने अनुकूल होकर उन्हें सपलता की मंजिल तक पहुंचाया है। लेकिन कभी-कभी इंसान इतना बेबस हो जाता है कि जिंदगी उसे बोझ लगने लगती है।
किसी तरह भरता था परिवार का पेट
कुछ ऐसी ही कहानी है हमारे आज के इस नायक मोहर शाहू की जिसने गरीबी का वो दौर देखा है जब उसके परिवार को खाने के लिए दिन रात मेहनत करना पड़ता था तब कहीं शाम को रोटी का निवाला नसीब होता था। लेकिन इन सब के बाद बी इस शख्स ने कभी हार नहीं मानी और जिंदगी की इस लड़ाई में आगे बढ़ता रहा। लेकिन एक दौर ऐसा भी आया जब इनके पूरे परिवार को कई दिनों तक भूखे रहना पड़ता था।
लेकिन उसके बाद भी इन्होंने हार नहीं मानी और मेहनत मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालते रहे। कहानी झारखंड की राजधानी रांची के एक गरीब परिवार की है। जिसमें एक शख्स मोहर साहू भी रहता था। मोहर के पिता एक रिक्शाचालक थे दिनभर रिक्शा खींचकर जो दस पांच रुपए मिलते थे उसी से किसी तरह परिवार का गुजारा हो रहा था।
घर की स्थिति को मोहर बाखूबी समझते थे इसलिए स्कूल से आने के बाद वो भी काम करने चले जाते थे। धीरे-धीरे उनका पढ़ाई से नाता टूट गया और घर की स्थितियों को सुधारने में जुट गए। मोहर साहू महज 12 साल के थे जब उन्होंने स्कूल को अलविदा कह दिया। इनके बड़े भाई मजदूरी का काम करते थे। तो मोहर बी उन्हीं के साथ काम पर जाने लगे। दिनभर काम करने के बाद दो तीन रुपए मिल जाते थे।
बचपन में पीठ पर ढोते थे बोरे
छोटी सी उम्र में पीठ पर चावल और गेंहू की बोरियों को लादकर इधर से उधर पहुंचाते थे। लेकिन इसके सिवाय उनके पास कोई गूसरा रास्ता न था। कुछ महीने काम करने के बाद मोहर को रिक्शा सुपरवाइजर का काम मिल गया। जिससे कुछ थोड़ा बेहतर होने लगा। इस काम से उन्हे 75 रुपए मिलने लगे। साल 1984 में मोहर का विवाह हो गया जिससे और भी जिम्मेदारी बढ़ गई।
शुरू किया खुद का काम
मोहर ने सुपरवाइजर की नौकरी छोड़कर एक बर्तन की दुकान पर सेल्समैन की नौकरी कर ली जहां से इन्हें वेतन के तौर पर 400 रुपए मिलने लगे। फिर सभी किसी ने इन्हें सुअर पालन की सलाह दी और जो इनके दिमाग में बात बैठ गई और मोहर ने इससे संबंधित जानकारी लेने के लिए बिरसा एग्रीकल्चर विश्वविद्यालय के रिटायर्ड डीन से मिले।
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उन्हें सारी बात बताई जिसके बाद उन्होंने पूरी जानकारी दी कि कैसे काम करना होगा। मोहर ने 10 दिनों की ट्रेनिंग ली। तमाम जानकारी इक्टठा करने के बाद मोहर ने बचत के 3 हजार रुपए से 10 सुअर खरीदे। पिर एक साल के बाद जब इन्होंने इनको बेंचा तो 10 हजार रुपए में बिके जो इन्हें फायदे का सौदा लगा।
आज भी खुद ही करते हैं काम
इसके बाद मोहर ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और आज के समय में इन्हें सुअर पालन से ही करीब एक करोड़ रुपए का टर्नओवर होता है। इनके इस काम से राज्य के मुख्यमंत्री भी प्रभावित हुए और इन्हें सम्मानित किया। मोहर आज इतना पैसा कमाने के बाद भी आसपास के होटलों से सुअरों के लिए भोजन इक्ट्ठा करने के लिए सुबह 4 बजे ही उठकर चल जाते हैं।
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