शिवरात्रि पर गूंजा ‘काठ का संंगीत’

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वरिष्‍ठ पत्रकार व चौथी दुनिया के संपादक रहे सुधेंदु पटेल भले ही जयपुर में निवास करते हों लेकिन उनका मन बनारस में ही रमता है। इसी बनारस प्रेम को उन्‍होंने अपने समय की फेमस पत्रिका ‘दिनमान’ के सम्पादक रघुवीर सहाय के परिप्रेक्ष्‍य में अपने फेसबुक वाल पर सहेजने का जतन किया है। शिवरात्रि के विशेष सन्‍दर्भ में उनकी यह शब्‍द स्‍मृति दिनमान के 9 जून 1974 के अंक में प्रकाशित हो चुकी है।

कवि व तत्कालीन ‘दिनमान’ सम्पादक रघुवीर सहाय को बनारस बहुत पसंद था। उन्हें काशी की गुंजलक सी गलियों का जीवन सुहाता रहा है। यहां के लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी की हर हरकत को ना केवल सुनना अपितु अपनी आंखों से देखने की ललक उनमें हमेशा बनी रहती थी। बनारस-दिल्ली प्रवास के दौरान मुझसे हुई बतकही के प्रसंगों को वे याद भी ख़ूब रखते थे। अक्सर मुझे उलाहना भी देते थे कि आपने फ़लां विषय के बारे में ज़िक्र किया था। पर अबतक लिखकर नहीं भेजा। मैं ललिता घाट स्थित नेपाली मंदिर पर भी अपनी अलसेटिया स्वभाव के कारण उलाहना भरी डांट कई-कई बार खा चुका होता था।

‘उड़ता बनारस’ किताब के रचयिता सिद्ध पत्रकार सुरेश प्रताप सिंह को सतत पढ़ते हुए अपना लिखा ‘ काठ का संगीत’ सहसा शिवरात्रि के बहाने याद आया गुरु!

वाराणसी के दो मील लम्बे पंक्तिवार घाटों के बीच एक घाट का नाम ललिता घाट हैं। उसी घाट के ऊपर एक पीपल का पेड़ है जिससे सट कर एक मंदिर खड़ा है। जिसे लोग नेपाली मंदिर या काठवाला मंदिर के नाम से जानते हैं। काफी बुरी हालत में है, शायद इसलिए कि अभी ’तीर्थस्थल’ है, ऐतिहासिक स्थान नहीं हैं। वैसे अब ऐतिहासिक स्थानों की दशा भी रामभरोसे ही होती जा रही हैं। कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण इस मंदिर की बेजोड़ लकड़ी पर की गयी नक्काशी को देखने के लिए काफी पर्यटक आते है। रतिक्रियारत युगल आकृतियां भी आकर्षण का एक प्रमुख कारण है। बावजूद इन खूबियों के मंदिर की दशा देख मन खिन्न हो जाता है। ऐसी ही उपेक्षा होती रही तो कुछ दिनों में सिर्फ ढांचा भर रह जायेगा।

नेपाली कारीगरों द्वारा नेपाल से लाये गये खास किस्म की लकड़ियों से बनाया गया यह शिव मंदिर पशुपतिनाथ का ही प्रतिरूप हैं। पगोडा शैली में बने इस मंदिर का ऊपरी हिस्सा लकड़ी पर तरह-तरह की मूर्तियां अंकित हैं। कहीं नाथों की तरह कानों में कुंडल, तो कहीं कापालिकों का मुंड परिधान और कहीं तिब्बती शैली में डमरूवादन करता हुआ पुरूष अनायास ही आकृश्ट कर लेता है। चौरासी सिद्वों सहित शाक्त, शैव, बौद्व एवं नाथ संप्रदाय तथा ब्राहाण, धर्म की मिलीजुली स्थिति को बखूबी लकड़ी पर उकेरा गया है।

मुख्य द्वार पर ’लकुलीश’ की मूर्ति है। नेपाली परंपरानुसार शिव मंदिर के द्वार पर ’लकुलीश’ की मूर्ति स्थापित करना अनिवार्य हैं। यह प्रचलन सातवीं शताब्दी से शुरू होकर अब तक चल रहा हैं। भारत के उतर पश्चिम क्षेत्र में सातवीं शताब्दी में सभी जगहों पर पाशुपत का प्रसार था। इस मत के प्रचारक ’लकुलीश’ माने जाते हैं। इसी समय कापालिक उपसंप्रदाय की भी सृष्टि हुई और औधड़ मत का प्रसार हुआ। नंगे रहना, भस्म लेपन करना इस संप्रदाय का मुख्य दिग्दर्शक सिद्वांत था। आचार्य प्रणछेन (ई. 636) द्वारा नेपाल में स्थापित इसी तरह की एक मूर्ति प्राप्त हुई है। छत्रचंदेष्वर की यह मूर्ति नग्न है और मूर्ति का लिंग ऊपर की ओर उठा हुआ है। भगवान लाल इंद्रलाल ने इसकी तुलना मथुरा में प्राप्त लव-कुश की मूर्ति से किया है, गुजरात के एक अभिलेख में लकुलीश के रूप में शिव का वर्णन हैः

भट्टारक लकुलीश मूर्त्या तपक्रिया कांड फलप्रदाता

अवतारे द्विश्व मनुगृहीतृ देवः स्वयं बल पाशुपत संप्रदाय के इतना लोकप्रिय होने के कारण ही भारत और नेपाल के तत्कालीन राजाओं यहां तक कि विदेशी शासको ने भी शिव की पूजा को अपनाया।

मंदिर पर उकेरी गयी सारी की सारी आकृतियां सजीव लगती हैं। आकृतियां पास से देखने पर बेढ़गी दिखती हैं-अनगढ़ तरीक से छीला हुआ मोटे गडढ़ों से भरी पूरी मूर्तियां खरादी भी नहीं गयी हैं और न ही आजकल की तरह बालू कागज से चमकायी ही गयी हैं। बावजूद इसके मुखाकृति और अंगविन्यास की सफाई देखने योग्य है। आभूषण अलग से पहनाये गये लगते है। शंकर का गणों के साथ नृत्य, गिलहरी, नेवला, मगर आदि जीवों के अलावा देवी के विभिन्न रूपों की आकृतियों को देख कर सजीवताका भ्रम हो जाता है। मंदिर पर की चौदह युम्माकृतियां रतिक्रियारत उकेरी हुई हैं। खुजराहो, कोणार्क और पुरी में ये पत्थरों पर अंकित हैं पर नेपाली मंदिर भारत में एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां ये सारी आकृतियां कलात्मक ढंग से लकड़ी पर उकेरी गयी हैं। वाराणसी में जितने भी मंदिर है, नेपाली मंदिर उन सब में अद्वितीय है।

और यह विडंबना ही है कि अद्वितीय होते हुए भी नेपाली मंदिर कला और धर्म दोनों ही ओर से उपेक्षित और असुरिक्षत हैं। अभी पिछले ही साल नेपाली मंदिर के मुख्य द्वार के बाहर की दो मूर्तियां चोरी चली गयी। उपेक्षा का सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि इस चोरी का समाचार तक किसी अखबार में नहीं छपा क्योंकि हिप्पी बंधुओं और रतिक्रिया के रचनात्मक रूप का साक्षात्कार करने वालो के अलावा अब वहां कोई नहीं जाता। धर्म की दृष्टि से भी नहीं, कभी कभी लगता है धर्म का सुरूचि से कोई संबंध नहीं अब रहा। अब धर्म आधुनिक हो गया है। पार्वती की शक्ल निरूपाराय से और सरस्वती की शक्ल हेमामालिनी से मिलने लगी है। फिल्मी धुन में भजन गाने वालो के लिए नेपाली मंदिर के शिल्प का कोई मतलब नहीं रहा। क्या और किसी देश में कला की इतनी उपेक्षा संभव है ?

इस की झुकी, ढली और ढहती दीवारों, ढहते चौखटों और सुंदर सरकंडवा खपरैलों के नीचे लटकते छोटे-छोटे घंटो के पीपल के पत्ते सा लोलक जब कभी हवा के झोकों से टकरा कर ध्वनि उत्पन्न करता है तब लगता है जैसे कोई मुंह दबाये रो रहा है। आश्चर्य की बात तो यह है कि भारत का पर्यटन विभाग, जो खुजराहो की रतिक्रियारत मूर्तियों से पर्यटकों को आकर्षित करता हैं, इस मंदिर के प्रति उदासीन हैं। शायद इसलिए कि बनारस में अभी बहुत कुछ है तो क्या धर्म और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से नेपाली मंदिर की कोई उपयोगिता नहीं रही ?

[bs-quote quote=”लेखक देश के बड़े अखबारों और पत्रिकाओं में संपादक रह चुके हैं। इनकी लेखन शैली में बनारसीपन अपनी पूरी ठसक के साथ दिखायी देती है। ” style=”default” align=”center” author_name=”सुधेंदु पटेल” author_job=”वरिष्‍ठ पत्रकार” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2021/03/sudhendu-patel.jpeg”][/bs-quote]

 

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