कैराना भी हार चुकी है भाजपा ?
गोरखपुर और फूलपुर के प्रतिष्ठापूर्ण उपचुनावों में तो परिणाम निकलने तक संशय बना रहा, लेकिन अब इन दोनों सीटों से भी अहम बन चुकी कैराना लोकसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव में तो भाजपा की हार अभी से तय मानी जा रही है। कैराना का महत्व भारतीय जनता पार्टी के लिए उतना ज्यादा नहीं है, जितना की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए है। माना जा रहा है कि अगर कैराना और नूरपुर के उपचुनावों में भी भाजपा को योगी आदित्यनाथ नहीं जिता पाते हैं, तो 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले योगी को जाना पड़ सकता है।
अखिलेश की सियासी चाल
दूसरी ओर, समाजवादी पार्टी ने गठबंधन का और विस्तार करते हुए कैराना में ऐसी व्यूह रचना कर दी है कि अब वहां से भाजपा की जीत का कोई चांस नहीं बच रहा है। साथ ही नूरपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में भी भाजपा की शिकस्त तय कर दी है। कैराना में अखिलेश यादव ने राष्ट्रीय लोकदल से भी गठबंधन कर लिया है, जबकि बसपा उनके साथ पहले से ही है। ऐसे में कैराना सीट पर भाजपा के लिए कुछ करने को बचता ही नहीं।
रालोद की नजर 2019 पर
कैराना से वैसे तो रालोद के जयंत चौधरी खुद चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन समाजवादी पार्टी से हुई बातचीत में इस बात पर सहमति बनी कि कैराना में समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी लड़ेगा और नूरपुर में रालोद का। रालोद की भी नजर आगामी लोकसभा चुनावों पर ज्यादा है, इसलिए वो भी आसानी से मान गया।
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कैराना में जातीय गणित इस प्रकार-
इस सीट पर करीब साढ़े 5 लाख वोटर मुस्लिम हैं तो करीब 2 लाख दलित हैं। जाट भी करीब पौने दो लाख हैं। कुछ ओबीसी जातियों को मिला लें तो समाजवादी पार्टी के पास करीब दस लाख वोट हो जाते हैं। ऐसे में भाजपा को करीब 60 हजार ब्राह्मण, करीब 55 हजार बनिया, एक लाख सैनी, करीब 75 हजार राजपूत वोटरों का ही सहारा बचता है।
रालोद की सबसे बड़ी उपलब्धि सपा-बसपा के साथ गठबंधन
हालात ये भी हो गए हैं कि कैराना से टिकट का दावा करने वाले भाजपाई नेता भी अब पीछे हटने लगे हैं। अब हर हाल में 2014 में कैराना से चुनाव जीते स्वर्गीय हुकुम सिंह की बेटी मृगांका ही भाजपा की उम्मीदवार बनेंगी। मृगांका भी एक साल से कम समय के कार्यकाल के लिए उपचुनाव इसलिए लड़ रही हैं ताकि इस सीट पर कोई और भाजपाई नेता न काबिज हो जाए और भविष्य के लिए उन्हें दिक्कत हो जाए।