अमां मियां… अगर ‘मम्मन खां’ के पेड़े नही खाए तो क्या खाए

0

बदायूं आये और मम्मन खां के पेड़े नहीं खाये तो क्या खाया। मथुरा के पेड़े तो सुने ही होगे लेकिन बदायूं के पेड़ों का इतिहास भी कम नहीं है। अगर पेड़ो की स्टॉल की बात करे तो 1825 में मम्मन खां ने पेड़ो के छोटे से बिजनेस की शुरुआत की लेकिन वो छोटा सा बिजनेस न सिर्फ देश मे बल्कि विदेश तक फैला है। अगर हम पेड़ों की बात करे अंग्रेजों तक ने इनके पेड़ो का स्वाद चखा है।

धरोहर के रूप में मिली इस कला को आगे बढ़ा रही है

मम्मन खां के ये पेड़ो का स्वाद और खुशबू का जादू बांग्लादेश, इग्लैंड, पाक और बंदायू तक फैली है। वैसे तो पेड़े की डिमाड आजकल कम हुई है लेकिन अगर फेमस की बात करे तो विदेशो तक इनके पेड़े की काफी मांग है। बदायूं के पेड़े का नाम केवल बदायूं ही नहीं, आसपास के जिलों में भी जाना जाता है। बदायूं में पेड़ा बनाने की शुरुआत मम्मन खां ने वर्ष 1825 में की थी। मम्मन खां तो अब नहीं रहे, लेकिन उनकी चौथी पीढ़ी आज भी बुजुर्गों से धरोहर के रूप में मिली इस कला को आगे बढ़ा रही है।

also read : कासगंज में हालात हुए काबू, मृतक के परिजनों को 20 लाख मुआवजा

कहा जाता है कि  रुहेलखंड पर जब अंग्रेजों का हमला हुआ तो यहां के नवाब हाफिज अहमद खां ने अफगानस्तान के सुल्तान से मदद मांगी। अफगानिस्तान की फौज के साथ मम्मन खां के पिता जान मोहम्मद खां यहां आए थे। जान मोहम्मद अफगानिस्तान की फौज में सिपहसालार थे। अंग्रेजों से लड़ाई में नबाब हाफिज अहमद खां के मारे जाने के बाद फौज तितर बितर हो गई और मम्मन खां पकड़ लिए गए। उन्हें सौ कोड़ों की सजा भी हुई।

पेड़े के नाम से पेड़े का कई लोग कारोबार कर रहे हैं

जिसके निशान ता उम्र उनके जिस्म पर रहे। अंग्रेजों की कैद से छूटने के बाद मम्मन खां एक फकीर के संपर्क में आए और फकीर बनकर यहीं रहने लगे। उस फकीर से ही उन्होंने पेड़ा बनाने की कला सीखी और इसी से अपना गुजर बसर करने लगे।  पहले मिट्टी की हांडियों में पेड़ा बेचा जाता था। उस समय पेड़ा के चाहने वाले भी ज्यादा थे। उन्होंने बताया आजादी के साथ हुए देश के बंटवारे में बहुत से लोग पाकिस्तान चले गए। लेकिन मम्मन खां का परिवार यहीं रहा और आज उनकी चौथी पीढ़ी पुरखों से मिली कला को आगे बढ़ा रही है। बरेली और आसपास के जिलों में भी बदायूं के पेड़े के नाम से पेड़े का कई लोग कारोबार कर रहे हैं।

तिवारी मिष्ठान भंडार का तो कहना ही क्या

तिवारी मिष्ठान भंडार का तो स्वाद की निराला है। जी यहां की बनी देशी घी की मिठाई लोगो को खास लुभाती है। अगर इनकी दुकान की बात करे तो लगभग सौ साल से कई पीढियां इस बिजनेस में सहयोग कर रहीं है। अगर स्वाद की बात करे तो आज भी वहीं स्वाद है जो आज से सौ साल पहले थे। वैसे तो इटावा में ही इसकी दुकान है लेकिन यूपी दिवस से लेकर लखनऊ महोत्सव तक में इनकी मिठाईयों की मांग रहती है।

(अन्य खबरों के लिए हमें फेसबुक पर ज्वॉइन करें। आप हमें ट्विटर पर भी फॉलो कर सकते हैं।

Leave A Reply

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More