जानिए क्या है खालिस्तान का सही मतलब, पहली बार चर्चा में कब आया ये शब्द…
भारत – कनाडा विवाद के साथ ही कुछ दिनों से खालिस्तान का नाम सुर्खियों में बना हुआ है। दरअसल कनाडा के पीएम जस्टिन ट्रूडो ने खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या मामले में भारत एजेंसियों के हाथ होने की बात कही थी। इस बयान के बाद से भारत और कनाडा के संबंधों ने कड़वाहट घोलने का काम किया है, ऐसे में खालिस्तान शब्द का इतना ज्यादा इस्तेमाल किया गया कि, लोगों में इस शब्द के प्रति जिज्ञासा पैदा हुई। ऐसे में जो लोग खालिस्तान आंदोलन क्या है, कैसे शुरू हुआ, क्यों शुरू हुआ इन सभी के जवाब पाने के लिए गूगल को सर्च कर रहे है। तो आइए आज हम आपको बताते है खालिस्तान का सही मतलब क्या है ?
आखिर क्या है खालिस्तान ?
भारत में खालिस्तान आंदोलन की फिलहाल जड़े उखाड़ फेंकी गयी है, ऐसे में कुछ लोग ऐसे है जो विदेश में बैठकर खालिस्तान की आड़ में कई तरह के आंदोलन खड़े कर रहे हैं और ऐसा करके भारत के खिलाफ नफरत फैलाने का काम कर रहे है। दरअसल, खालिस्तान भारत के एक हिस्से को अलग कर खालिस्तान बनाने की मांग कर रहा है, इसके साथ ही पंजाब को भारत से अलग करने के आंदोलन को ही खालिस्तान आंदोलन का नाम दिया गया है।
कहां से आया खालिस्तान शब्द
खालिस्तान शब्द की उत्पत्ति अरबी के खालिस शब्द से हुई है, इस हिसाब से खालिस्तान का मतलब ‘वो जमीन जो खालसा की हो’, मतलब की जिस स्थान पर सिर्फ सिख रहते हो। साल 1940 में पहली बार इस शब्द का प्रयोग किया गया था। जब डॉक्टर वीर सिंह भट्टी ने लाहौर घोषणापत्र के जवाब में एक पैम्फलेट छापा था, हालांकि ऐसा नहीं था कि, ये पहला मौका था जब देश के बंटवारे की मांग उठी थी, बल्कि इससे पहले भी साल 1929 में सिखों के लिए अलग देश की मांग उठ रही थी। कांग्रेस अधिवेशन में मास्टर तारा सिंह ने ये मांग उठाई थी।
कैसे शुरू हुआ खालिस्तानी आंदोलन
70 के दशक में चरण सिंह पंक्षी और डॉ जगदीत सिंह चौहान के नेतृत्व में पहली बार खालिस्तान की मांग उठी थी। इसके बाद 1980 में इसके लिए खालिस्तान राष्ट्रीय परिषद भी बनाया गया। इसके बाद पंजाब के कुछ युवाओं ने एक दल खालसा नाम का संगठन तैयार किया, भिंडरावाले भी इसी आंदोलन से निकला था. जिसके आतंकियों को खत्म करने के लिए अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में साल 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार चलाया गया। इसके बाद खालिस्तानी आंदोलन की जड़ें भारत से उखड़ने लगीं। अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन समेत कई देशों में खालिस्तान समर्थक लगातार भारत के खिलाफ प्रदर्शन करते हैं और विदेश में बैठकर भारत की धरती पर अशांति फैलाने की कोशिश में जुटे हैं।
इतने हिस्सो में बंट गया पंजाब
बंटवारे की मांग के दौरान संत फतेह सिंह ने पंजाब सूबा के नाम से एक आंदोलन की शुरूआत की थी। जिसका मकसद था पंजाबी भाषा वाले लोगो का एक अलग राज्य तैयार करना। लेकिन उस समय सरकार ने इस मांग को नकार दिया , क्योंकि, तब उसे लग रहा था कि इस राज्य की मांग की आड़ में अलग सिख राज्य का सपना देखा जा रहा है और भारत का संविधान धर्म के आधार पर इसकी इजाज़त नहीं देता । हालांकि 10 साल के बाद ही इसे लेकर सरकार का रुख़ बदल गया और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वर्ष 1966 में पंजाब को तीन हिस्सों में बांट दिया।
-पहला हिस्सा वो है, जिसे आज पंजाब कहते हैं.
-दूसरा हिस्सा हरियाणा था.
-और तीसरे हिस्से में वो पहाड़ी इलाके थे, जिन्हें हिमाचल प्रदेश को सौंप दिया गया.
-इसके अलावा चंडीगढ़ को केन्द्र शासित प्रदेश और पंजाब और हरियाणा की संयुक्त राजधानी बना दिया गया.
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खालिस्तान का विचार कैसे अस्तित्व में आया
हिंदुओं के लिए सिखों के मन में अलगाव की भावना के पीछे दो बड़ी वजह थीं। पहली ये कि समाज में हिंदू समुदाय ज्यादा प्रभावशाली था और दूसरी वजह थी सरकारी नौकरियों और राजनीति में सिखों की कमज़ोर स्थिति। वर्ष 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पहली बार पूर्ण स्वराज की मांग रखी थी और अंग्रेज़ों से भारत को आज़ाद कराने का संकल्प लिया था. लेकिन कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन का भी विरोध हुआ था और ऐसा करने वाले तीन ग्रुप थे.
पहला ग्रुप मोहम्मद अली जिन्नाह का था, जिनका मानना था कि मुसलमानों के लिए एक अलग देश होना चाहिए। दूसरा ग्रुप भारत के संविधान निर्माता डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर का था, जो दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे। तीसरा ग्रुप मास्टर तारा चंद का था, जो ये कह रहे थे कि अगर भारत में मुसलमानों के लिए अलग से सीटें आरक्षित की जाती हैं तो इस आधार पर सिख अल्पसंख्यकों के लिए भी सीटें आरक्षित होनी चाहिए.
मास्टर तारा चंद उसी शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के संस्थापक सदस्य थे, जिसका गठन गुरुद्वारों को मुक्त कराने के लिए किया गया गया था. मास्टर तारा चंद ने अपनी दो बड़ी बातों को लेकर लाहौर अधिवेशन का विरोध किया था। पहली बात ये कि वो चाहते थे कि कांग्रेस सिखों को नजरअंदाज न करे। वही दूसरी बात ये कि उन्हें डर था कि राजनीतिक हिस्सेदारी में सिखों की भूमिका बहुत सीमित रह जाएगी क्योंकि, सिखों की आबादी उस समय भी हिंदू और मुसलमानों के मुकाबले काफी कम थी।