पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवसः साड़ीवाली पत्रकार के जज्बे को सलाम

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. इससे आप मीडिया की ताकत का अंदाजा लगा सकते है,

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पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस हर साल 3 मई को मनाया जाता है. मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. इससे आप मीडिया की ताकत का अंदाजा लगा सकते है, लेकिन इसके साथ ही यह काफी जोखिम भरा भी होता है. सत्य और निर्भीकता से पूरिपूर्ण इस पेशे में अक्सर मीडियाकर्मियों से मारपीट और हत्या के मामले सामने आते हैं, जिसमें मीडिया को अपने काम से रोकने का प्रयास किया जाता है. ऐसे में मीडिया के पेशे में खतरे और उसके महत्व को देखते हुए विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाए जाने का फैसला लिया गया था. इस दिवस को मनाने का उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता के मूल्यों का जश्न मनाना, मीडिया का सम्मान करना, हमलों से उसकी रक्षा करना और कर्तव्य के दौरान अपनी जान देने वाले पत्रकारों को श्रद्धांजलि देना है.

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वहीं, आज पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस पर खबर लहरिया की टीम ने आज एक ग्रामीण महिला पत्रकार की कहानी सांझा की है, जिसमें महिला पत्रकारों से जुड़ी विचारधारा, संघर्ष और चुनौतियों की बात की गयी है.

साड़ी पहनी ग्रामीण महिला पत्रकार

बता दें कि खबर लहरिया की रिपोर्ट के मुताबिक, एक साड़ी पहने महिला पत्रकार नहीं हो सकती यह हम नहीं बल्कि आज के समय में गांव के लोग देखकर कहते हैं
कि महिला होकर पत्रकार है. एक तो साड़ी में आ रही है यह सुनकर खबर लहरिया की पत्रकार सुनीता ने कहा कि कभी- कभी यह लगता है कि लोग मान ही नहीं रहे हैं. लेकिन आज के दौर में सुशीला ने महिला पत्रकारों के विचारों को तोडा है कि पत्रकारिता की कोई वेश भूषा नहीं होती. कोई साड़ी या जींस पहने, कोई दलित या पिछड़ा, शहरी हो या ग्रामीण कोई फर्क नही पड़ता. सभी पत्रकार हैं और उन्हें किसी की मंज़ूरी की जरुरत नहीं.

वाराणसी से रिपोर्टर हैं सुशीला

इतना ही नहीं सुशीला ने बताया कि प्रशासन हमेशा कहता है कि आप तो बेहतरीन खबरे पा जाती होंगी, क्योंकि साड़ी में होने के चलते सभी लोग आपको आम महिला समझते हैं. सुशीला ने कहा कि महिला पत्रकार होने के नाते हमें यह सब सुनना पड़ता है. महिला पत्रकार होने की चुनौतियों के साथ-साथ उन लोगों के रूढ़िवादी विचारधाराओं से भी लड़े जो यह कह रही थीं कि एक महिला, एक साड़ी पहनी पत्रकार नहीं हो सकती. सुशीला ने कहा कि क्या आम लोगों से अलग दिखना किसी को पत्रकार बनाता है?

पहचान बनाने के जज्बे ने दिया पत्रकारिता का रास्ता

सुशीला ने बताया कि बचपन में मेरा सपना था कि मैं बाहर घूमूं और प्रशासन में अपनी पहचान बना सकूं. मैं हमेशा एक ऐसा काम खोज रही थी कि लोग हमें पहचानें. सुशीला ने बताया कि उनकी शादी 14 वर्ष की उम्र में हो गई थी. ससुराल के समर्थन से उन्होंने ठ। की शिक्षा प्राप्त की. खास बात यह कि सुशीला के तीन बच्चों की मां हैं.

पत्रकारिता में आजादी नहीं

पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस पर सुशीला ने बताया कि अभी प्रेस में उस तरह की आजादी नहीं है. ऐसा इसलिए कि कभी-कभी गांव से खबर करके आती हूं तो मुझे फोन आ जाता है, मैडम! यह खबर मत लगाइएगा. आप भी फिल्ड में रहती हैं. सुशीला ने कहा कि मानों यह कहकर वह हमें डरा रहे हैं.
उन्होंने बताया कि जब वह एक बार पीएम मोदी की जनसभा में उनकी फोटो खींच कर रही थी तब वहां प्रशासन उन्हें फोटो खींचने नही दिया. प्रधानमंत्री के जाने तक उनके साथ सभी पत्रकारों को बंद करके रखा गया. ऐसे में क्या इसे प्रेस की आज़ादी कहा जा सकता है?

पत्रकरिता में चुनौती…

सुशीला ने कहा कि पत्रकारिता में चुनौती बहुत है. जब स्टोरी के लिए बाहर निकलती हूं तो कई बार जिम्मेदार लोग नहीं मिलते हैं. उनके घर या दफ्तर पर कई बार चक्कर लगाने पड़ते हैं. जब बात हो जाती है तो ख़ुशी होती है कि अब मेरी स्टोरी पूरी हो जाएगी. बताया कि जब प्रिंट मीडिया में करती थी तो वह अखबार घर- घर पहुंचाकर आती थी. जब सब डिजिटल हो गया और लोग सुशीला को पहचानने लगे. लोग कई बार फोन करके पूछते भी कि मैडम! मेरी खबर नहीं लगी. लगा दीजिये. उन्होंने बताया कि साल 2014 में जब वाराणसी जिले का एडिशान बंद हुई थी तो उन्हें कुछ समय के लिए पत्रकारिता छोड़नी पड़ी. लेकिन जब 2018 में खबर लहरिया का फिर से प्रकाशन शुरू हुआ तो वह पत्रकारिता के क्षेत्र में एक बार फिर से उतर आयीं.

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