लक्ष्मण झूले की तर्ज पर बना है दिल्ली का ये मेट्रो पुल
दिल्ली मेट्रो नमूना है तकनीक और इंजीनियरिंग जिसे कम लोग जानते हैं कि एक तकनीक जब दिल्ली मेट्रो ने अपनाई तब ये सिर्फ दुनियाभर में एक ही जगह इस्तेमाल हुई थी। यह तकनीक थी 93 मीटर लंबा बगैर खंभों वाला एक्स्ट्राडोज़्ड पुल। हरिद्वार के लक्ष्मण झूला की तरह है मगर लक्ष्मण झूला से ज़्यादा वज़न उठाने में सक्षम है।
सबसे पहले जापान में बना था ऐसा पुल
मेट्रो की ब्लू लाइन से जब आप इंद्रप्रस्थ स्टेशन से प्रगति मैदान के बीच गुज़रते हैं तो यह पुल बीच में पड़ता है। इसे 302 मीटर के टेढ़े अर्धव्यास पर बनाया गया। इससे पहले ऐसा पुल सिर्फ़ जापान में बना था। दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (डीएमआरसी) को इसे बनाने में कम पापड़ नहीं बेलने पड़े। इस पुल के ठीक ऊपर से हाईटेंशन इलेक्ट्रिक लाइन गुज़रती हैं। नीचे भारतीय रेलवे की पांच लाइनें हैं। इनसे पश्चिमी और पूर्वी भारत से आने वाली क़रीब 200 ट्रेनें गुज़रती हैं। डीएमआरसी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि न तो इन ट्रेनों की आवाजाही रोकी जा सकती थी और न रेलवे लाइनों के बीच कोई खंभा खड़ा किया जा सकता था।
दिल्ली सरकार के पास दो ही विकल्प थे या तो हरिद्वार के लक्ष्मण झूला जैसा पुल बनाएं या फिर एक्स्ट्राडोज़्ड पुल। लक्ष्मण झूला जैसा डिज़ाइन ज़्यादा भार नहीं सह सकता। तो फिर नया डिज़ाइन बना, जिसे पास करने में क़रीब चार महीने लगे। फरवरी 2006 में डीएमआरसी के क़रीब 10 इंजीनियरों और 230 से ज़्यादा मज़दूरों ने काम शुरू किया। हाइटेंशन तारों से बचने के लिए रात में काम किया गया। पुल बनाने में डिज़ाइन समेत लगभग 6.4 करोड़ रुपये लगे।
कारगिल के समय गेज की जंग
1999 में जब कारगिल जंग की आंच सुलग रही थी तो दिल्ली के अख़बारों में दूसरी बड़ी जंग की चर्चा हो रही थी, देश की पहली मॉर्डन मेट्रो के गेज की। गेज यानी पटरियों के बीच की दूरी। शुरू से ही डीएमआरसी अंतरराष्ट्रीय मेट्रो की तर्ज पर 4 फीट 8 इंच के स्टैंडर्ड गेज पर मेट्रो का रूट बनना चाहता था। उसके मुताबिक़ इससे गाड़ी की रफ़्तार और सुरक्षा बनी रहती है। शहरी विकास मंत्रालय भी डीएमआरसी के साथ था पर रेल मंत्रालय ख़िलाफ़ था। रेल मंत्रालय के मुताबिक़ मेट्रो को ब्रॉड गेज पर चलाना ज़्यादा बेहतर था, जिसमें पटरियों के बीच 5 फीट 4 इंच की दूरी होती है।
डीएमआरसी का कहना था कि डिब्बे हल्के होने और मेट्रो की स्पीड के लिए ब्रॉड गेज बाधा थी। क़रीब 17 महीने रेल मंत्रालय और डीएमआरसी के बीच गेज की जंग चलती रही। अगस्त 2000 में मंत्रिमंडल ने ब्रॉड गेज के पक्ष में सहमति जताई और 64.1 किलोमीटर लंबा फेज़ वन और 63.73 किलोमीटर लंबा फेज़ 2 ब्रॉड गेज पर बना।
इसके बाद दिल्ली सरकार ने बाकी के चरणों की मेट्रो के लिए स्टैंडर्ड गेज के पक्ष में निर्णय लिया। 2006 में जाकर यह तय पाया गया कि मेट्रो के लिए गेज का फ़ैसला राज्य सरकारें करेंगी। फेज़-1 में बनी दिल्ली मेट्रो की रेड, येलो और ब्लू लाइन ब्रॉड गेज पर बनी हैं।
स्टेशन जहां अतीत से मिला वर्तमान
पुरानी दिल्ली का चावड़ी बाज़ार इलाक़े में मेट्रो स्टेशन बनाना एक चुनौती से कम नहीं था। छोटी छोटी गलियां, ट्रैफ़िक और ऊपर से जगह की बेहद कमी। पुरानी ऐतिहासिक इमारतें, जिनका एक पत्थर भी ग़लत टूटता, तो भारी नुक़सान की आशंका थी।
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इसी वजह से डीएमआरसी ने इसे नीचे से बनाना शुरू किया। खुदाई के दौरान ज़मीन से रिसते पानी को रोकने के लिए खास दीवारें बनाई गईं और दो साल में स्टेशन तैयार हो चुका था। मगर यह दिल्ली मेट्रो का सबसे गहरा स्टेशन साबित हुआ। इस स्टेशन की गहराई 25 मीटर है और इसका प्लेटफ़ॉर्म 21 मीटर पर बना हुआ है। दिल्ली मेट्रो निर्माण की सबसे खास बात यह है कि इसकी खुदाई से जो मिट्टी और मलबा निकलता है उसे सुरंग खोदने वाली मशीनों के साथ एक ख़ास ट्रेन के ज़रिए निकालकर दूसरी जगह पहुँचाया जाता है।
कभी सोती नहीं है दिल्ली मेट्रो
दिल्ली में आखिरी मेट्रो रात को क़रीब 11:35 के आसपास मिलती है और यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुँचाती है। मगर पब्लिक के लिए बंद होने और फिर से शुरुआत के बीच क़रीब छह घंटे भी मेट्रो लगातार चलती रहती है। इस दौरान पटरियों की चेकिंग आदि का काम चलता रहता है। देश की सबसे पहली मेट्रो रेल कोलकाता में चली थी। 15 साल पुरानी दिल्ली मेट्रो देश की पहली मॉर्डन मेट्रो परियोजना है। जिसकी तर्ज पर भारत के दूसरे शहरों में मेट्रो चलाई जा रही हैं।
साभार- न्यूज18