कैसे थे वो दिन जब देश में लगी थी इमरजेंसी ….

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आज हम 50 साल बाद हम इतिहास का वो काला पन्ना हम खोलने जा रहे हैं, क्योंकि आज वही तारीख है जब लोकतंत्र की टांगे तोड़ कर उसे अपाहिज करने के बाद बंधक बनाकर उसे बनाकर 21 महीने तक सड़क गलने और बर्बाद होने के लिए छोड़ दिया गया था. 25 जून 1975 को आधी रात में देश में आपातकाल ( इमरजेंसी) लगाए जाने का फैसला लिया गया. 26 जून 1975 की सुबह करीब 8 से 9 बजे के बीच रेडियो के माध्यम से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में राष्ट्रपति द्वारा आपातकाल लगाए जाने की घोषण कर दी थी. लेकिन यह फैसला राष्ट्रपति फकरूद्दीन अली अहमद का नहीं था बल्कि इंदिरा गांधी की सिफारिश पर संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपात लगाए जाने को कहा गया था. लेकिन ऐसा क्यो किया गया और कैसे ये इतिहास का काला दिन बन गया ? आइए जानते हैं….

इमरजेंसी लगाए जाने की वजह ?

यह मुद्दा हमेशा से ही इतिहास का काफी विवादास्पद रहा है, क्योंकि इसे लागू करने के पीछे की कई सारी वजहें बताई जाती है. जिसमें से इसकी मुख्य वजह राजनीतिक अस्थिरता थी. यह वही दौर था जब से राजनीतिक अस्थिरता की शुरूआत हुई थी. क्योंकि उस समय इलाहाबाद हाइकोर्ट ने 12 जून 1975 को इंदिर गांधी को चुनाव में धांधली कराए जाने का दोषी पाने पर उन्हें किसी भी पद पर आसीन होने पर रोक लगा दी थी.

इसके बाद देश भऱ में इंदिरा गांधी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और राजनीतिक तनाव बढने लगा था. इसको देखते हुए इंदिरा सरकार ने इस बात का दावा किया कि, देश में गहरी अशांति और आंतरिक अस्थिरता जिसकी वजह से राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा हो सकता है , जिसकी वजह से देश में आपातकाल घोषित किया जाना ही एक मात्र रास्ता बच सका है. ऐसे में इंदिरा सरकार ने ये बहाना देते हुए आपातकाल की घोषणा की जिसके चलते वे विधायी और न्यायिक हस्तक्षेप के बिना सत्ता में विराजमान रह सकें.

प्रेस की स्वतंत्रता छीनने के साथ, विपक्ष नेताओं को जेल में किया था कैद

इंदिरा सरकार के इस फैसले से देश में चारों तरह त्राहिमाम मच गया था. जहां एक तरह विपक्ष के नेताओं को ही नहीं बल्कि कार्यकर्ताओं को भी बिना किसी ठोस कारण गिरफ्तार किया जा रहा था तो दूसरी तरफ प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गयी थी. इतना ही नहीं बल्कि देश के नागरिकों की स्वतंत्रता को छीन लिया गया था. वहीं आरएसएस जैसे करीब 24 संगठनों पर भी रोक लगा दी गयी थी. इसके बाद इंदिरा सरकार यही नहीं रूकी बल्कि देश में व्यापक सामाजिक और आर्थिक सुधारों का हवाला देते हुए, अस्पतालों में लोगों की जबरन नसबंदी और स्लम क्लीयरेंस जैसे निंदनीय कदम भी उठाए गए थे.

इमरजेंसी के इस पूरे घटनाक्रम को लेकर इतिहासकारों का मानना है कि यह सारा षडयंत्र इंदिरा गांधी ने अपने खिलाफ आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को लेकर देश भऱ में हो रहे विरोध को दबाने और अपनी सत्ता को मजबूत करने का लिए रचा गया था. इस घटना ने देश के लोकतंत्र गहरी चोट पहुंचाई थी. साथ ही इस काल ने देश की राजनीति पर गहरी छाप छोड़ने का काम किया था.

जनता ने ऐसे लिया इंदिरा से 21 महीने का बदला

लेकिन कहते हैं ना कि हर गुनाह एक न गलती जरूर करता है जिससे वह पकड़ा जाता है. कुछ यही हुआ इंदिरा गांधी के साथ. सत्ता के लालच में वो क्या गुनाह कर बैठी थीं उन्हें खुद भी शायद मालूम नहीं था. लेकिन जो भी किया था इसका अंत तो बुरा होना ही था और वही हुआ भी. देश में इंदिरा सरकार के आपातकाल के खिलाफ विपक्ष का एकजुट होना शुरू हो गया था और बड़े स्तर पर राष्ट्रपति भवन पर धरना, देशव्यापी सभाएं और प्रदर्शन शुरू कर दिए गए थे.

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वहीं जब 1977 में देश आपातकाल हटने के बाद लोकसभा चुनाव कराए गए तो नतीजों ने वो कर दिखाया जो वाकई लोकतंत्र की शक्ति कर सकती है. जी हां, लोकसभा चुनाव के नतीजों ने इंदिरा गांधी के सारे षड़यंत्र पर पानी फेर दिया और नवगठित जनता पार्टी ने ”वन इज टू वन” के तहत एकजुट होकर कांग्रेस सरकार को न सिर्फ परास्त कर दिया था, बल्कि इंदिरा गांधी भी साइड हो गयी थी. दरअसल, वे अपनी संसदीय सीट से भी जीत हासिल न कर पायी और उस साल एक नये सूर्य का उदय हुआ था. इसके साथ देश को पहली बार कोई गैर कांग्रेस नेता यानी मोरारजी देसाई को पीएम बनाया था. यह वो दौर था जब 30 साल बाद गैर कांग्रेसी सरकार सत्ता में आई थी.

 

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