मोह पर लगाम लगाने का यंत्र है ‘जुआ’ – हेमंत शर्मा
‘जुआ’ एक ऐसा शब्द, जो जेहन में आता है और अपने साथ नकारात्मकता का भाव भी लेकर आता है. ये खेल है, लेकिन एक ऐसा खेल जिसकी सामाजिक स्वीकार्यता नहीं है. पर ये तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है. इसके दूसरे पहलू से आपको परीचित करा रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार और टीवी 9 भारतवर्ष के डायरेक्टर हेमंत शर्मा. अपने फेसबुक वाल पर उन्होंने ‘जुआ’ के एक भिन्न पक्ष को उजागर किया है. हम आपके लिए ठीक वैसे ही लेकर आये हैं जैसा उन्होंने रचा है… इस शब्द रचना को पढ़ने के बाद जुए के प्रति आपकी धारणा बदल जायेगी.
जुआ, दीपावली और मुतरेजा।
मुतरेजा जी भले आदमी हैं।सीधे सादे सच्चे सरल आदमी।कार्तिक की मख़मली ठंड शुरू होते ही उनकी उँगलियों फड़फड़ाने लगती है। ताश के पत्ते उन्हें आसक्त करते हैं।वे जुआरी नहीं हैं।पर जब थोड़ा तरल ग्रहण करते हैं तो वे द्यूत क्रीड़ा की ओर उद्यत होते हैं।ताश के पत्तो की उन्हें ज़्यादा समझ नहीं है।पर बेसिक जानते हैं। गुलाम ,बेगम पहचानते है।और ये भी जानते हैं कि गुलाम के बिना किसी बेगम का अस्तित्व नहीं है। बेगम और ग़ुलाम का तो अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है।
परसों वे मिल गए।कहा सर ताश की फड जमनी चाहिए।मैं अचरज में पड़ा कि इतना भला आदमी जुआ खेलने को क्यों कह रहा है।मुतरेजा ने कहा दीपावली पर में ज़रूर जुआ खेलता हूँ शास्त्र इसकी इजाज़त देता है।बाहर कहीं लोकलाज में जाता नहीं सो घर में पत्नी के साथ ही खेलता हूँ।मुतरेजा ने भारतीय वांग्मय के ज़रिये मुझे इतना ज्ञान दिया। कि मेरीआँखें ठीक वैसे ही खुली जैसे रामानन्द ने कबीर की खोली थी। काशी के चॉंडाल ने आचार्य शंकर की खोली थी।
मुतरेजा जी ने कहा सर ज़िन्दगी भी एक जुआ है।और दुनिया इक सतरंगी चौसर।हम हर साँस पर दांव लगाते हैं।तो फिर जुए( द्यूत क्रीड़ा) से परहेज़ क्यों ? जीत हार तो आजकल महाशक्ति की लय ध्वनि है।जुआ दीपावली का शगुन माना जाता है।दीपावली पर जुए की परम्परा सदियों पुरानी है।मुतरेजा ने कहा दीपावली पर जुआ न खेलने वाला अगले जन्म में छछून्दर होता है।मैने कहा यही तो मेरी दादी भी कहती थी।मुतरेजा में मैंने अपनी दादी का अक्स देखा।मुतरेजा की मानें तो अब छछून्दर बनना तय था। बनारस में दीपावली के दूसरे रोज प्रतिपदा को जुए का चलन है। किसी के पास कोई काम नहीं होता था।लखनऊ में तो इस रोज को जमघट ही कहते थे।
इस मुतरेजा ज्ञान का शास्त्रीय निचोड़ यह था कि
जुआ कोई अपराध नही है।ये ढीले चरित्र का खेल भी नही है। इसे मानवजाति का प्राचीनतम खेल कह सकते हैं। अब भला इससे अधिक मनोरंजक और रोमांचकारी खेल क्या हो सकता है जो कुछ ही देर में राजा को रंक और रंक को राजा बना दे! करवाचौथ से शुरू दिपावली का यह उत्सव कार्तिक पूर्णिमा यानी देवदिपावली तक चलता है। मैं इस यज्ञ के आयोजन को लेकर उधेड़बुन में था। फिर सोचा ठीक है आयोजन होगा ताकि अगले जन्म में छछून्दर योनि से मुक्ति मिले। मैंने कहा ठीक है।द्यूत क्रीड़ा जमेगी और मेशीन भी लगेगी। पर मुतरेजा को ताश के दो ही तीन खेल आते है।मैंने उनसे कहा इसमें कोई शास्त्र आड़े नही आता। हम अपना जूता उछाल कर वह सीधा गिरेगा या उल्टा इस पर भी बाज़ी लगा सकते है।फिर आप नहीं खेलना चाहते तो दूसरे पर दॉंव लगाईए।आज की व्यवस्था में दूसरों पर दांव लगाना शायद सबसे ज़्यादा आसान है।मैने मुतरेजा को समझाया थोड़ी कोशिश करने से आप इस विधा में सिद्धहस्त हो जायेंगें ।आख़िर बाबा रामदेव भी तो कहते है- ‘करोगे तभी तो होगा।’ मैंने कहा कि एक अच्छे जुआरी में जो गुण होने चाहिए वो आपमें है। मसलन चातुर्य, कौशल, सतर्कता, धैर्य, प्रत्युत्पन्नमति और छल से प्रतिपक्षी को परास्त करके उसका सर्वस्व हरण करना।इसमें छल वाला मामला मैं आपका जानता नहीं। पर बाक़ी के तो आप उस्ताद हो।फ़िलहाल वे मान गए हैं ।और कल वे मुझे अगले जन्म में छछून्दर से मुक्ति दिलाने के लिए आये। आयोजन दिव्य रहा। मेशीन लगा। भोजन का दिव्य प्रबंध हुआ।
इस यज्ञ में कई बडे लोग शामिल हुए।कुछ खेले नहीं है।केवल दर्शक दीर्घा में रहे। बहरहाल मुतरेजा समझाते रहे सर ,जुए पर उंगली उठाने वाले लोग इसके पीछे का दर्शन नहीं जानते।जुआ दरअसल धन से मोह छोड़ने की विपश्यना है।पैसे के क्रूर और चंचल स्वभाव को समझने का अनुष्ठान है। जो लोग पैसे और सम्पत्ति के पीछे फ़ाईल लेकर दौडते है उन्हे जुए का अनुष्ठान समझ नही आएगा। जो जीवन को ही फायदे और नुकसान के जुए की विपश्यना बना चुके हैं, उन्हें इसे समझने में विशेष तौर पर दिक्कत आएगी।आपको मालूम है इसे कृष्ण ने खेला। शिव ने पार्वती के साथ खेला। पार्वती ने शिव को हराया।वे नाराज हो काशी चले गए। फिर पार्वती मनाने गयी।स्कंद पुराण (२.४.१०) के अनुसार पार्वती ने यह ऐलान किया कि जो भी दीपावली में रात भर जुआ खेलेगा, उस पर वर्ष भर लक्ष्मी की कृपा रहेगी*।
दीपावली सम्पन्नता का अनुष्ठान है।सम्पन्नता को सिध्द करने का साधन पैसा है।और पैसे का स्वभाव क्या है? इसे समझाने के लिए दिवाली पर जुआ खेलने की प्रथा है।पैसा अपने स्वामियों को तेज़ रफ़्तार से बदलता रहता है।दिवाली में खेला गया जुआ व्यसन नही है।यह अनुष्ठान है।यह बताने की खातिर कि पैसा स्थायी नही है।उसके चंचल स्वभाव से हमें परिचित रहना चाहिए। पैसा हमारी सम्पन्नता का माध्यम हो सकता है। पर पैसा सम्पन्नता का पर्याय नही है।जिस समाज में पैसा सम्पन्नता का पर्याय हो गया, उसकी सम्पन्नता लम्बे वक़्त तक टिकाऊ नही रह सकती है। इसलिए जुए का संदेश यही है कि हम पैसे के क्रूर और चंचल स्वभाव को समझें।
जुए की परम्परा सदियों पुरानी है।ईसा से तीन हज़ार साल पहले मेसोपोटामिया में छह फलक वाला पाँसा पाया गया।इसी के आसपास मिस्र के काहिरा से एक टैबलेट मिला, जिस पर यह कथा उत्कीर्ण है कि रात्रि के देवता थोथ ने चन्द्रमा के साथ जुआ खेल कर ५ दिन जीत लिए जिसके कारण ३६० दिनों के वर्ष में ५ दिन और जुड़ गए। चीनी सम्राट याओ के काल में भी १०० कौड़ियों का एक खेल होता था जिसमें दर्शक बाज़ी लगा कर जीतते हारते थे।यूनानी कवि और नाटककार सोफोक्लीज़ का दावा है कि पाँसे की खोज ट्रॉय के युद्ध के समय हुई थी।मुझे इस पर भरोसा नही है।मैं इस विद्या की जन्मस्थली भारत को मानता हूँ। हमारे यहां द्यूत-क्रीड़ा को ६४ कलाओं में आदरणीय और सम्मानित स्थान दिया गया और इसका पूरा शास्त्र विकसित किया गया।
ऋग्वेद के १०वें मण्डल में भी जुए का ज़िक्र है। ‘जुआड़ी का प्रलाप’ के सूक्त ३४ के कुछ अंश इस प्रकार हैं- “मैं अनेक बार चाहता हूँ कि अब जुआ नहीं खेलूँगा। यह विचार करके मैं जुआरियों का साथ छोड़ देता हूँ परंतु चौसर पर फैले पाँसों को देखते ही मेरा मन ललच उठता है और मैं जुआरियों के स्थान की ओर खिंचा चला जाता हूँ।”
“जुआ खेलने वाले व्यक्ति को उसकी सास कोसती है और उसकी सुन्दर भार्या भी उसे त्याग देती है।जुआरी का पुत्र भी मारा-मारा फिरता है जिसके कारण जुआरी की पत्नी और भी चिन्तातुर रहती है। जुआरी को कोई फूटी कौड़ी भी उधार नहीं देता। जैसे बूढ़े घोड़े को कोई लेना नहीं चाहता, वैसे ही जुआरी को कोई पास बैठाना नहीं चाहता।”
“जो जुआरी प्रात:काल अश्वारूढ़ होकर आता है, सायंकाल उसके शरीर पर वस्त्र भी नहीं रहता।.”हे अक्षों (पाँसों)! हमको अपना मित्र मान कर हमारा कल्याण करो। हम पर अपना विपरीत प्रभाव मत डालो। तुम्हारा क्रोध हमारे शत्रुओं पर हो, वही तुम्हारे चंगुल में फँसे रहें!”
“हे जुआरी! जुआ खेलना छोड़ कर खेती करो और उससे जो लाभ हो, उसी से संतुष्ट रहो!”
पूरे संसार के प्राचीन साहित्य को खंगाल डालिए, द्यूत-क्रीड़ा का ऐसा सुन्दर काव्यात्मक वर्णन नहीं मिलेगा। यद्यपि वैदिक ऋषि ने पहले ही सावधान कर दिया कि जुए का दुष्परिणाम भयंकर है, लेकिन इसका नशा ऐसा है कि इसके आगे मदिरा का नशा भी कुछ नहीं है। जुए के खेल में जिस चालाकी और धोखेबाज़ी की जरूरत पड़ती है वैसी बुद्धि युधिष्ठिर के पास नही थी। जबकि शकुनि इस कला में अत्यंत निपुण था।यह जानते हुए भी वे दुर्योधन के निमंत्रण पर जुआ खेलने को तैयार हो गए और राजपाट व अपने भाइयों समेत खुद को तथा द्रौपदी को भी हार गए।नल और दमयंती की कहानी भी इसी से मिलती जुलती है।
संस्कृत व्याकरण की मूल किताब पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ में भी जुआ मौजूद है।५०० ई.पू. में पाणिनि ने जुए के पाँसों को अक्ष और शलाका कहा है।अक्ष वर्गाकार गोटी होती थी और शलाका आयताकार। तैत्तरीय ब्राह्मण और अष्टाध्यायी से अनुमान होता है कि इनकी संख्या पाँच होती थी जिनके नाम थे-अक्षराज, कृत, त्रेता, द्वापर और कलि। अष्टाध्यायी में इसी कारण इसे ‘पंचिका द्यूत’ के नाम से पुकारा गया है। कोटियों के चित्त और पट गिरने के विविध तरीक़ों के आधार पर हार और जीत का निर्णय कैसे होगा, पाणिनी ने इसे भी समझाया है। पतंजलि ने भी जुआड़ियों का ज़िक्र किया है और उनके लिए ‘अक्ष कितव’ या ‘अक्ष-धूर्त’ शब्द का प्रयोग किया है। अग्नि पुराण में द्यूतकर्म का पूरा विवेचन है। स्मृतियों में भी हार-जीत के नियम बताए गए हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से यह मालूम पड़ता है कि उस ज़माने में राजा द्वारा नियुक्त द्यूताध्यक्ष यह सुनिश्चित करता था कि जुआ खेलने वालों के पाँसे शुद्ध हों और किसी प्रकार की कोई बेईमानी न हो। जुए में जीत का ५ प्रतिशत राज्य को कर के रूप में चुकाना पड़ता था। कौटिल्य ने जुए की निन्दा की है और उन्होंने राजा को परामर्श दिया है कि वह चार व्यसनों शिकार, मद्यपान, स्त्री-व्यसन तथा द्यूत से दूर रहे।
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दीपावली की अगली तिथि कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा का नामकरण ही ‘द्यूत प्रतिपदा’ के रूप में किया गया है।याानि आज की तारीख।गीता के ‘विभूति-योग’ अध्याय में कृष्ण ने कहा है-“द्यूतं छलयतामस्मि” अर्थात “हे अर्जुन! मैं छल संबंधी समस्त कृत्यों में जुआ हूँ।” यानी जुआ भी कृष्णमय है।
कुछ दलित नेता ठीक ही मनु को गरियाते हैं।मनु महाराज ने ‘मनुस्मृति’ में यह लिख दिया कि जुए और बाज़ी लगाने वाले खेलों पर प्रतिबंध होना चाहिए। आपस्तंब धर्मसूत्र में जुए को केवल ‘अशुचिकर’ पापों की श्रेणी में रखा गया। ये पाप ऐसे हैं जिनसे आदमी जाति से बहिष्कृत नहीं होता।मज़ेदार बात यह है कि फलित ज्योतिष द्वारा जीविका साधन भी इसी श्रेणी का पाप है यानी ज्योतिष का धंधेबाज़ और जुआड़ी दोनों बराबर!! इसलिए मनु महाराज कुछ भी कहें, जुआडियो को घबराने की ज़रूरत नही है।शूद्रक के नाटक “मृच्छकटिकम्” में ‘संवाहक’ नामक जुआड़ी का बडा ही मनोरंजक वर्णन है। मृच्छकटिकम् के एक श्लोक से उस वक़्त के जुआड़ियों का चाल-चरित्र और जुए के प्रति उनके समर्पण का पता चलता है:-
” द्रव्यं लब्धं द्यूतेनैव दारा मित्रं द्यूतेनैव,
दत्तं भुक्तं द्यूतेनैव सर्वं नष्टं द्यूतेनैव।”
(मैंने जुए से ही धन प्राप्त किया, मित्र और पत्नी जुए से ही मिले, दान दिया और भोजन किया जुए के ही धन से और मैंने सब कुछ गँवा दिया जुए में ही!)
मुग़ल काल में भी शतरंज, गंजीफा और चौपड़ खेला जाता था। राजाओं के यहाँ खूब जुआ खेला जाता था। लोग सब कुछ लुटा कर दरिद्र हो जाते थे।यही सब देख कर कबीरदास जी ने कहा-“कहत कबीर अंत की बारी।हाथ झारि कै चलैं जुआरी।” इस्लाम में जुआ खेलना हराम कहा गया है, लेकिन इसके बावजूद अधिकांश मुस्लिम देशों में जुए पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लग सका। इंग्लैण्ड में कभी जुए पर पूरा प्रतिबंध लगा रहा और अचानक १६६० ई. में चार्ल्स द्वितीय ने सभी को जुआ खेलने की अनुमति दे दी। चार साल बाद १६६४ ई. में क़ानून पास हुआ कि केवल धोखाधड़ी और बेईमानी से खेले जाने वाले जुए पर रोक रहेगी तथा कोई आदमी जुए का धन्धा नहीं कर सकेगा।बाद में तो ब्रिटिश सरकार ने लाटरी शुरू की जिसकी आय फ्रांस से हुए युद्ध में ख़र्च हुई।फ्रांस ने भी पेरिस में सीन नदी पर पत्थर के पुल-निर्माण का ख़र्च लाटरी से ही निकाला। भारत में अंग्रेज़ों के शासनकाल में “पब्लिक गैंब्लिंग एक्ट १८६७” लागू हुआ और कई राज्यों ने अपने क़ानून बना कर जुए पर रोक लगाई। स्वतंत्र भारत में भी जुआ खेलना दण्डनीय अपराध है लेकिन इसके क्रियान्वयन की स्थिति से सभी लोग परिचित हैं। भारत में सरकारी और निजी लाटरी का धंधा कई बार चला और बन्द हुआ। यह समझ के परे है कि सरकार प्रायोजित जुए में कोई बुराई नहीं और आम जनता खेले तो जेल की हवा खाए!
ताश के पत्तों का भी दिलचस्प इतिहास है। ताश के पत्तों के चलन से जुए की दुनियाँ में क्रान्ति आ गई। चीन में जुए का इतिहास कम-से-कम २५०० ई.पू. पुराना है। वहाँ तांग राजवंश (६१८-९०७ ई.) के दौरान ताश के पत्ते पाए गए। चौदहवीं सदी के अंत में मिस्र से ताश के पत्तों ने यूरोपीय देशों में प्रवेश किया। हुकुम, पान, ईंट और चिड़ी के ५२ पत्तों वाले ताश का इस्तेमाल सर्वप्रथम सन् १४८० में हुआ तबसे इन पत्तों की सज-धज और आकार-प्रकार में अनेक परिवर्तन हुए। ताश के तरह-तरह के खेल जैसे पोकर, ब्रिज, रमी आदि बहुत लोकप्रिय हुए। ख़ूबी यह है कि कई खेलों में रुपए-पैसे की बाज़ी लगाने की जरूरत नहीं है, इसलिए उन्हें जुए की कोटि में नहीं रखा जाता। जुए को लोग संयोग का खेल कहते है पर मेरे हिसाब से यह दक्षता का खेल है।
नतीजा कितना भी दु:खदायी हो, जुए के खेल का रोमांच और नशा ऐसा है कि वह आज दुनियाँ का सर्वाधिक पसंद किया जाने वाला खेल है।अमेरिका का शहर लॉस वेगास जुआ खेलने वालों का स्वर्ग है पिछले महीने मैं वहॉं होकर लौटा हूँ।वहाँ की यूनिवर्सिटी ऑफ नेवादा में जुए से संबंधित शोध केन्द्र के अलावा इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ गैंबलिंग एंड कॉमर्शियल गेमिंग की स्थापना हो चुकी है। लेकिन इसके बावजूद जुए का खेल पश्चिमी देशों की सांस्कृतिक विरासत का अंग नहीं बन सका।धरती पर केवल भारत ही ऐसा देश है जहाँ ऋग्वैदिक काल से लेकर आज तक द्यूत-क्रीड़ा की अविच्छिन्न परंपरा चलती आई। जुए को लेकर यहाँ जैसा उच्च कोटि का शास्त्र रचा गया, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
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तो जुए के इतिहास को समझिए।उसके शास्त्र को समझिए। उसके पीछे की मूल भावना को समझिए। फिर इस खेल पर सवाल उठाने की ज़हमत कीजिए।जमीन का मोह।धन संपत्ति का मोह।कोरी बौद्धिकता का मोह।कब्जे की संपन्नता का मोह।ऐसे तमाम मोह पर लगाम लगाने का यंत्र है जुआ।जीवन की बाज़ी लगाने का मुहावरा यही से निकला है।आप भी खेलिए और स्वयं को रुपये-पैसे के मोह से मुक्त कर जीवन के उत्सव की ओर प्रवृत्त कीजिए।जिंदगी को जुआ बनाकर जीने से कहीं अच्छा है, कुछ देर जुए की जिंदगी जी लेना।मुतरेजा के इसी दर्शन के तहत कल बैठकी का दिव्य और भव्य आयोजन हुआ। मुतरेजा का आभार उसने मुझसे यह यज्ञ करवा दिया।
जय जय।