“पप्पू” से “पनौती” और “मूर्खों के सरदार” से लेकर RSS की “चड्डी, क्या अमर्यादित शब्दों से सधती है सियासत ?
सोशल मीडिया में अगले दिन से जमकर "पनौती" शब्द ट्रेंड होने ल
Politics: देश में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव अब अपने अंतिम चरण पर है. वहीं इन विधान सभा चुनाव प्रचार के दौरान सियासत में शब्दों की मर्यादा भी खूब तार-तार हुई है. बता दें कि छत्तीसगढ़ से शुरू हुई यह सियासत मध्य प्रदेश, राजस्थान होते हुए अब तेलंगाना पहुंच गयी है. प्रचार के दौरान शब्दों के मायाजाल में जहां “पनौती” से लेकर “मूर्खों के सरदार” और ”आरएसएस की चड्डी” से लेकर “खाकी निक्कर” जैसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ. लेकिन सियासत के ताजा हालात फिलहाल “पनौती” शब्द पर आकर अटक गयी है. भारतीय जनता पार्टी जहां प्रधानमंत्री के लिए बोले गए शब्द के तौर पर कांग्रेस पर हमलावर हुई है. वहीं कांग्रेस भी भारतीय जनता पार्टी की ओर से “पप्पू”, “मूर्खों के सरदार” और “राहुकाल” जैसे बोले गए शब्दों पर हमलावर है.
राजनीति की गरिमा पर जरूर पड़ा दुष्प्रभाव
वही, भाषा के जानकारों का मानना है कि ऐसी शब्दावलियों से सियासी तौर पर तो कोई फायदा किसी राजनीतिक दल को नहीं होता है, लेकिन इससे राजनीति की गरिमा पर जरूर एक बड़ा दुष्प्रभाव पड़ता है. दरअसल, पनौती शब्द पर सियासत उस समय ज्यादा गर्म हुई जब पीएम मोदी भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच खेले गए फाइनल मुकाबले को देखने के लिए गए थे. लेकिन बदकिस्मती के भारत हार गया जिसके बाद सोशल मीडिया में अगले दिन से जमकर “पनौती” शब्द ट्रेंड होने लगा. लेकिन पनौती शब्द को लेकर सियासी गर्मी तब ज्यादा बढ़ गयी जब राजस्थान में प्रचार के दौरान राहुल गाँधी ने ट्रेंड हो रहे पनौती शब्द का जिक्र कर दिया. इसके बाद भाजपा पूरी तरह से कांग्रेस और राहुल गाँधी को घेरने में लग गयी तो वहीँ कांग्रेस ने भी भाजपा को भी घेरना शुरू कर दिया. कांग्रेस नेताओं ने कहा जब राहुल गाँधी को लेकर ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया था तब शब्दों की मर्यादा और कहां चली गई थी.
पहले भी राजनीति में ऐसे शब्दों का होता रहा प्रयोग
आपको बता दें कि, लंबे समय से सियासत को समझने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि यह कोई पहला मौका नहीं जब सियासत में शब्दों को अमर्यादित किया गया हो. इससे पहले भी राजनीति में ऐसे शब्दों का प्रयोग होता रहा है. वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रकाश कहते हैं कि अमर्यादित शब्दों की आग तब ज्यादा तल्ख होती है, जब बड़े नेताओं पर आरोप प्रत्यारोप लगते हैं. लेकिन सियासत की पिच पर ऐसे शब्द चुनावी दौर में खूब बोले जाते हैं. लोकतंत्र में सरकार से प्रश्न किया जाता है. सरकार जब तानाशाह हो जाती है या तानाशाही मानसिकता की हो जाती है तो आम नागरिकों सहित किसी भी विपक्ष के नेता का जवाब देना नहीं चाहती है. क्योंकि जनता की कसौटी पर खरे न उतरने वाले राजनीति के प्रतिनिधित्व करने वाले लोग प्रश्न का अशिष्ट भाषा में जवाब देते हैं. कभी- कभी भाषा इतनी अमर्यादित होती है कि इसे हम बोलचाल में प्रयोग ही नहीं कर सकते.
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कई नारे भी किए जाते हैं इस तरह तैयार…
उनका कहना है कि सिर्फ राजनीति में अक्सर ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं होता है, बल्कि कई नारे भी इसी तरह से तैयार किए जाते हैं जिनका राजनीति में जमकर इस्तेमाल होता है. आजादी के बाद से लेकर अब तक सियासत में जिस तरीके से नारों का चलन बढ़ा और उन नारों से सियासत की गई, वह एक अलग दौर रहा. उन्होंने कहा कि सियासत में भाषा, भाषा शैली और बॉडी लैंग्वेज का बहुत महत्व होता है. बॉडी लैंग्वेज और भाषा के माध्यम से आप बहुत हद तक लोगों को प्रभावित करते हैं. जब यह कई बार नकारात्मक रूप से सामने आती है, तो भी सियासत में इसकी चर्चा खूब होती है. उनका मानना है कि इस तरीके की भाषा शैली से सियासत में कितना असर पड़ता है या उसका चुनाव के हारने-जीतने पर कितना असर पड़ता है, इसका तो कोई आकलन नहीं हुआ है.