सावधान.. गंगा की मछलियों में मिला माइक्रोप्लास्टिक, सेहत के लिए घातक
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पर्यावरण वैज्ञानिक ने शोध किया है. उन्होने बताया कि, गंगा में रहने वाली मछलियों में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा ज्यादा पाई गई है, जो पर्यायवरण के साथ ही इसे खाने वाले लोगों की सेहत के लिए भी बेहद घातक है. इसके सेवन से न सिर्फ मछलियोँ का जीवन प्रभावित होता है, बल्कि मानव सेहत पर भी प्रभाव पड़ता है.
ज्यादातर लोग मछलियों का सेवन करते हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि मछलियों का सेवन करने से स्वास्थ्य, पाचन क्रिया और आंखों की रोशनी ठीक रहती है. मछलियों का तेल छोटे बच्चों के मालिश में भी काम आता है. ज्यादातर लोग गंगा में रहने वाली मछलियों का सेवन बड़े ही चाव से करते हैं, लेकिन अब यह मछलियां लोगों की सेहत के लिए घातक हैं. ऐसा हम नहीं कह रहे हैं बल्कि वैज्ञानिकों का कहना है. इसको लेकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पर्यावरण वैज्ञानिक ने शोध किया है. उन्होने बताया कि, गंगा में रहने वाली मछलियों में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा ज्यादा पाई गई है, जो पर्यायवरण के साथ ही इसे खाने वाले लोगों की सेहत के लिए भी बेहद घातक है. इसके सेवन से न सिर्फ मछलियोँ का जीवन प्रभावित होता है, बल्कि मानव सेहत पर भी प्रभाव पड़ता है. बता दे कि, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पर्यावरण एवं धारणीय विकास संस्थान में यह शोध किया गया लगभग 3 वर्षों तक इस पर शोध किया गया. जिसमें इस बात का पता चला की गंगा में कभी नष्ट न होने वाले प्लास्टिक के अति सूक्ष्म कण मौजूद है जो मछलियों के भीतर भी मिले हैं और इन मछलियों को खाने वाले मनुष्य के शरीर में यह पहुंचकर बीमारियों का खतरा भी बढ़ा रहे हैं.
कानपुर से वाराणसी तक किया गया शोध
बीएचयू के पर्यायवरण एवं धारणीय विकास संस्थान के डॉक्टर कृपा राम ने बताया कि कानपुर से लेकर के वाराणसी तक में शोध किया गया, जिसमें वाराणसी में सबसे ज्यादा माइक्रो प्लास्टिक पाया गया. आंकड़ों की बात करें तो कानपुर में गंगा के साथ ही जल में माइक्रो प्लास्टिक के संख्या 2.6 पार्टिकल्स पर मीटर क्यूब है, जबकि वाराणसी में माइक्रो प्लास्टिक की संख्या 2.42 पार्टिकल्स पर मीटर क्यूब मौजूद है. इस बारे में इस विषय पर शोध कर रहे असिस्टेंट प्रोफेसर कृपाराम ने बताया कि माइक्रो प्लास्टिक की 5000 माइक्रोमीटर तक छोटे आकार के कण होते हैं, जो गंगा और मछलियों में पाए गए हैं. बनारस से कानपुर तक गंगाजल में ये शोध हुआ है.
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शोध में कानपुर और प्रयागराज से कहीं ज्यादा माइक्रो प्लास्टिक गंगा जल में मिला है. उन्होंने बताया कि कानपुर की तुलना में बनारस में गंगाजल में माइक्रो प्लास्टिक की मात्रा दोगुनी से भी ज्यादा है.
यहां पर प्लास्टिक मिलना बेहद हैरान करने वाला था, क्योंकि यहां पर कोई बड़ी इंडस्ट्री या कल कारखाना नहीं है. लेकिन यह हकीकत है गंगा में माइक्रो प्लास्टिक सीवेज में मिलकर जा रहा है, जिससे गंगा की सेहत के साथ उनमें पलने वाली मछलियों के सेहत पर भी बुरा असर पड़ रहा है. जो आम जनमानस के लिए भी बेहद घातक है.
अस्सी घाट पर सबसे ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक
उनका कहना है कि शोध में यदि बनारस की बात करें तो हमने यहां चार प्रमुख घाटों को लिया. जिसमें केदारेश्वर घाट, दशाश्वमेध घाट, शीतला घाट,अस्सी घाट है. इसमें सबसे ज्यादा माइक्रो प्लास्टिक अस्सी घाट पर मिला है. उन्होंने बताया कि, यदि गंगा में इनके स्त्रोत को देखें तो ये सीवेज व अन्य स्रोतों के जरिए पहुंचते हैं.
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सीवरेज के साथ लंबे समय तक कूड़े में धूप में प्लास्टिक पड़े होने से वह टूटकर हवा के जरिए भी गंगा में मिलते हैं क्योंकि वह नष्ट नहीं होते इसलिए वह गंगा में मौजूद रहते हैं. यह बेहद छोटे होते हैं और खाने के साथ मछलियां इनका भी सेवन करती हैं, जिस वजह से यह उनके शरीर में माइक्रोप्लास्टिक ज्यादा है.
उन्होंने बताया कि मछलियों की बात करें तो वाराणसी क्षेत्र में चार प्रजातियों की मछलियां कॉमन क्रॉप, टेंगरा मछली, भोला मछली और रोहू पकड़ी गई. उनके 62 नमूने लिए गए जिसमें उनके गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक्ट और मांसपेशियों की जांच की गई. जिसमें पता चला कि, 66 फ़ीसदी मछलियों में गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक्ट और 15 फ़ीसदी मछलियोँ के मांसपेशियों में माइक्रो प्लास्टिक मिला है. ब्रिड की बात करें तो रोहू में सबसे ज्यादा माइक्रो प्लास्टिक पाई गई हैं.
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प्रोफेसर कृपाराम बताते हैं कि माइक्रोप्लास्टिक युक्त मछली का सेवन करना मानव शरीर के लिए घातक है.लेकिन ये कितना ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है. इस पर अभी शोध किया जा रहा है.मगर ये केवल पर्यावरण तक ही सीमित नहीं है. मानव शरीर जैसे मल, रक्त, प्लेसेंटा, फेफड़ों में भी पाए गए हैं. नॉन डिग्रेडेबल होने की वजह से इन्हें आसानी से पचाया नहीं जा सकता.
निगले गए माइक्रो प्लास्टिक की वजह से पाचन तंत्र खासा प्रभावित होता है. एक बार जब यह मानव शरीर में चला जाता है तो आरओएस उत्पादन और एंटीऑक्सीडेंट प्रणाली के बीच असंतुलन पैदा करता है, जिससे मेटाबॉलिज्म शरीर में सबसे ज्यादा प्रभावित होता है. WHO ने भी माइक्रो प्लास्टिक की प्रतिकूल प्रभावों के बारे में चेतावनी दी थी, हालांकि यह अभी तक नहीं क्लियर हो पाया है कि यह मानव शरीर के लिए कितना ज्यादा नुकसानदायक है. इस पर भी जल्द ही शोध किया जाएगा.