बड़े देशों की धांधली से Carbon Trading फेल!
कार्बन ट्रेडिंग का क्या है तरीका?
देखिये बात सिंपल है, कई बार अमीर देशों से हो रहे कार्बन एमिशन को कम करने के लिए कई सारे स्टेप्स लिए गए है, लेकिन उसके बावजूद भी हम अपने गोल को अचीव करने में पीछे रह गए है.
अब देखिये होता क्या है, बड़े देशों में कार्बन एमिशन बहुत बड़ी स्केल पे होता है. लेकिन जब से दुनिया क्लाइमेट चेंज की प्रॉब्लम को लेकर सजग हुई है तब से कार्बन एमिशन के लिए मानदंड तय कर दिए गए है. अलग-अलग देशों के लिए अलग-अलग मानदंड है.
इन्ही मानदंडों के लिए गवर्नमेंट परमिट ज़ारी करती है. यानी अगर आसान भाषा में कहा जाए तो ये एक लाइसेंस है जिससे देशों को अपनी हैवी इंडस्ट्रीज चलाने के लिए परमिट मिल जाती है. तो ये अगर आप समझिये तो एक कैप सेट कर दी गई है इंडस्ट्रीज के कार्बन एमिशन के लिए.
इसके प्रावधान की अगर बात करे तो, अगर किसी इंडस्ट्रीज में उनके गिवेन रेट से ज्यादा एमिशन हो रहा है तो उन्हें एक्स्ट्रा परमिट खरीदना पड़ेगा. पेर्मिट्स की ट्रेडिंग दुनियाभर में नेशनल लेवल, इंटरनेशनल लेवल और डोमेस्टिक लेवल पे भी होती है.
कार्बन ट्रेडिंग का अस्तित्व….
थॉमस क्रोक्कर ने 1977 में क्योटो प्रोटोकॉल में कार्बन ट्रेडिंग जे अनुच्छेद डालकर इसे एक्सिस्टेन्स में लाया था. हलाकि की विवादों में घिरे कार्बन ट्रेडिंग का अनुपालन नहीं हो पाया . फिर 2013 में कार्बन ट्रेडिंग को फिर से सीनेट में लॉन्च किया गया. वर्तमान में कुल 39 देश है और 23 सब-नेशनल एरिया है जहाँ पर कार्बन ट्रेडिंग अस्तित्व में है.
क्या है कार्बन ट्रेडिंग के फ़ायदे…
US में ऐसे एमिशन को रोकने वाले कैप हमेशा से बहुत ही इफेक्टिव रहे है जिसकी वजह से अमेरिका में एसिड रेन से छुटकारा पाया जा सका. अमेरिका में उन दिनों एसिड रेन की समस्या बहुत ही बढ़ चुकी थी क्योंकि वहाँ सल्फर डाइऑक्साइड का एमिशन बहुत बढ़ गया था, उस समय भी ऐसी ही लिमिट बनाई गई थी जिसकी वजह से एसिड रेन में कमी आई.
लाज़मी है की सरकार के लिए कार्बन ट्रेडिंग बहुत ही आसान है. तुलनात्मक रूप से अगर बात की जाए तो टैक्सेज और रेगुलेशन अगर लाए जाए तो उसका विरोध तय है. देशों को Decarbonise करने के लिए कार्बन ट्रेडिंग बहुत ही आसान और सस्ता उपाय है.
नुकसान भी है बहुत
बहुत ही सरलता से बात करें तो समझने में आसन होगा. एक आउटपुट जिसकी वजह से दुनिया का टेम्परेचर बढ़ रहा है उसका क्या कभी कोई मूल्य हो पाएगा? जी हाँ कार्बन डाइऑक्साइड की कीमत लगाना एक मार्किट में बहुत ही कठिन बात है.
इसका सबसे बड़ा नुक्सान गरीब देशं पर पड़ता है. अमेरिका जैसे देश हर बार अपने खरीदी हुई परमिट से ज्यादा एमिशन करते है, इसीलिए वो उन देशों से परमिट खरीदते है जो डेवलपिंग है या उनके एमिशन उनके परमिट से कम ही होते है. तो इस सिचुएशन में डेवलपिंग नेशन से बड़े देश परमिट खरीद लेते है, यानि बड़ें देशों के एक्स्ट्रा एमिशन छोटे देश के एमिशन में काउंट हो जाते है. जिसकी वजह से कार्बन एमिशन में उतनी कमी नहीं आई है जितनी कार्बन ट्रेडिंग से आनी चाहिए.
पूरा निचोड़ अगर निकला जाए तो कही न कही से कार्बन ट्रेडिंग क्लाइमेट चेंज की प्रॉब्लम को टैकल करने में बहुत ही अच्छा स्टेप लेकिन उसमे भी बड़े देश धांधली करने से बाज नहीं आ रहे है.