सत्ता के गलियारे में ‘मीडिया मैनेजरों’ की मांग

0

मध्यप्रदेश में अभी विधानसभा चुनाव में एक वर्ष से ज्यादा का वक्त है, मगर सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने मीडिया (संचार तंत्र) को साधने के लिए सारे दाव-पेंच अभी से तेज कर दिए हैं। यही कारण है कि ‘मीडिया मैनेजरों’ (संचार प्रबंधकों) की मांग बढ़ गई है, तो दूसरी ओर क्षेत्रीय समाचार पत्रों से लेकर निजी समाचार चैनलों को विज्ञापन देकर सरकारी योजनाओं का जोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया जा रहा है।

राज्य में भाजपा ने लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीती है और वह हर हाल में चौथी बार सत्ता में आने की रणनीति बना रही है। इसके लिए उसने सबसे पहले संचार माध्यमों में पार्टी संगठन और सरकार की छवि को संवारने वाली खबरों को ज्यादा से ज्यादा स्थान दिलाने की रणनीति बनाई है। ऐसा इसलिए, क्योंकि संगठन की राष्ट्रीय इकाई की ओर से सोशल मीडिया और दीगर मीडिया पर सक्रिय होने के निर्देश लगातार दिए जा रहे हैं।

सूत्रों की मानें तो कई मंत्री इन दिनों हाईटेक हो गए हैं और सोशल मीडिया पर खासे सक्रिय हैं। यह बात अलग है कि उनमें से अधिकांश के ट्विटर हैंडल, फेसबुक और व्हाट्स-एप को चलाने की जिम्मेदारी किसी और की होती है। यह काम पूरी तरह पत्रकारों के हाथों में है। यही कारण है कि राष्ट्रीय या प्रादेशिक मुद्दे पर मंत्रियों की प्रतिक्रिया आने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है।

सूत्रों का कहना है कि जो मीडिया मैनेजर मंत्रियों और प्रभावशाली नेताओं के सोशल मीडिया की कमान संभाले हुए हैं, उन्हें इसके एवज में समाचार पत्रों या चैनल में काम करने पर मिलने वाली तन्ख्वाह से कई गुना ज्यादा पगार मिल रही है। इसके अलावा कई पत्रकारों ने ऐसी वेबसाइट शुरू कर दी है, जिन पर किसी खास मंत्री को ही प्रमोट किया जाता है।

वरिष्ठ पत्रकार भारत शर्मा की मानें तो दल या सरकारें कोई भी हों, वह मीडिया को ‘मैनेज’ करने पर खास जोर देती हैं। यह बात अलग है कि मध्यप्रदेश में यह साफ नजर आने लगा है। मीडिया को अपरोक्ष रूप से निर्देश है कि वह सीधे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को निशाना बनाने वाली खबरों से बचें। ऐसा समाचार पत्रों व क्षेत्रीय चैनलों को देखकर भी लगता है। बात साफ है कि समाज का हर व्यक्ति शॉर्टकट रास्ते से सुविधा चाहता है, फिर पत्रकार कैसे पीछे रह सकता है।

बताते चलें कि लगभग तीन साल पहले अंग्रेजी समाचार पत्र के एक पत्रकार ने एक बड़ी खोजी रिपोर्ट के जरिए मुख्यमंत्री चौहान की पत्नी को कटघरे में खड़ा किया था, तो सरकार ने रातों रात पत्रकार को आवंटित सरकारी मकान के बाहर खाली कराने का नोटिस चस्पा करा दिया था। उस पत्रकार को बाद में मध्यप्रदेश ही छोड़ना पड़ा, क्योंकि उसके सामने नौकरी का संकट खड़ा होने लगा था। इसके अलावा जो वेबसाइट सरकार को कटघरे में खड़ा करने वाली खबरें चलती हैं, उन्हें सरकारी विज्ञापन के लाले पड़ जाते हैं।

स्थानीय अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर कहा कि उन्हें प्रबंधन की ओर से निर्देश हैं कि सरकार को हानि पहुंचाने वाली खबर और खासकर मुख्यमंत्री से जुड़ी हुई, चाहे कितनी ही जनहित की हो, प्रकाशित नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापमं) व गेमन घोटाले की खबरें पत्रकारों के पास थीं, मगर प्रबंधन के दबाव में प्रकाशित नहीं हुआ और व्यापमं घोटाले के उजागर होने में कई साल लग गए। तब तक बहुत कुछ प्रबंध किया जा चुका था। इससे राज्य के मीडियाकर्मियों की साख पर भी आंच आई है।

Also Read : देश-दुनिया तक पहुंच रही ‘मिथिला की पाग’

बुजुर्ग पत्रकार लज्जा शंकर हरदेनिया बताते हैं कि वह बीते 55 वर्षो से पत्रकारिता जगत में सक्रिय हैं। उन्होंने नागपुर के ‘नवभारत’ में जब काम किया तो उन्हें कहा गया कि वे तो वामपंथी विचारधारा के हैं, उसके बावजूद रामगोपाल माहेश्वरी ने नौकरी दी। एक बार कांग्रेस के लोग शिकायत करने भी आए, तब माहेश्वरी ने शिकायत करने वालों को डपटते हुए कहा, “हमारे अखबार में हर विचारधारा के लोग हैं, मगर वे अपनी विचारधारा घर पर रखकर आते हैं। आज अगर कोई मंत्री पत्रकार की शिकायत प्रबंधन से कर दे, तो उसकी नौकरी जानी तय है।”

हरदेनिया आगे कहते हैं कि अखबार मालिकों के दूसरे धंधे भी हो गए हैं, पहले ऐसा नहीं था। अब पत्रकारों के पास मालिक और संपादक का संरक्षण नहीं रहा, यही कारण है कि सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर लिखना संभव नहीं हो पा रहा है। इसका उदाहरण है सरदार सरोवर बांध, जिसे भरने के लिए मध्यप्रदेश के खाली पड़े बांधों से पानी छोड़कर 40 हजार परिवारों को डुबाने की कोशिश हुई, मगर मीडिया से कवरेज करने के लिए न के बराबर लोग पहुंचे। इस मामले पर रिपोर्ट भी कम जगह प्रकाशित हुई। यह सब सिर्फ इसलिए कि हकीकत सामने न आ जाए।

राज्य की राजधानी से लेकर जिला स्तर तक पर ऐसे पत्रकार बहुत अधिक दबाव झेल रहे हैं, जो क्लास नहीं मास (विशेष वर्ग नहीं जनहित) के लिए खबरों को प्रकाशित करते हैं। कुछ पत्रकार अपनी वेबसाइट पर खबरों को खबर की तरह दे रहे हैं, तो कुछ सरकार की छवि बनाने में लगे हैं।

इतना ही नहीं, सरकार ने जनसंपर्क संचालनालय में एक ऐसा सेल बनाया है, जहां सभी राज्यस्तरीय और राष्ट्रीय चैनल पर दिखाई जाने वाली पल-पल की खबरों पर नजर रखी जाती है। राज्य सरकार के खिलाफ चलने वाली खबर को यह सेल जिम्मेदार अफसर को तुरंत सूचित करता है और फिर ऐसी खबर को रुकवाने के प्रयास शुरू हो जाते हैं।

राज्यस्तरीय चैनलों को सरकार के निर्देश मानना पड़ते हैं, क्योंकि ऐसा न करने पर विज्ञापन बंद कर दिए जाएंगे। लिहाजा, राज्य में मीडिया की ‘विश्वसनीयता’ पर सवाल उठने लगे हैं। अब देखना होगा कि मीडिया किस तरह अपनी साख बनाए रख पाता है।

(अन्य खबरों के लिए हमें फेसबुक पर ज्वॉइन करें। आप हमें ट्विटर पर भी फॉलो कर सकते हैं।) 

Leave A Reply

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More