इनवेस्‍टर्स को भा रहा है बाटी-चोखा का देशी स्वाद

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राजधानी लखनऊ में आज से होने जा रहे दो दिवसीय इन्वेस्टर्स समिट को लेकर जहां पूरा लखनऊ दुल्हन की तरह सजाया गया है, वहीं दूसरी तरफ वीवीआईपी इलाके गोमतीनगर स्थित बाटी-चोखा रेस्टोरेंट ने भी विदेशी मेहमानों के स्वागत के लिए खास तैयारी कर रखी है| राजधानी में पहली बार हो रहे इतने बड़े इन्वेस्टर्स समिट को देखते हुए इस रेस्टोरेंट को देशी ढंग से सजाया जा रहा है। जो मेहमानों को अपनी तरफ खासा आकर्षित करेगा|  इस रेस्टोरेंट की सजावट में भारतीय संस्कृति की साफ झलक दिखाई दे रही है| रेस्टोरेंट को देशी गेंदे की लतर से सजाया गया है| रेस्टोरेंट के मुख्य द्वार पर  देशीपन की दस्तक मेहमानों के लिए खास रहेगी।
बता दें कि उत्तर प्रदेश की राजधानी में हो रहे इन्वेस्टर समिट को लेकर जहां प्रदेश सरकार लखनऊ की सड़कों, स्मारकों, चौराहों का रंगरोगन से लेकर विशेष सजावट करने में जुटी है, वहीं स्ट्रीट लाइटों को भी बिजली के झालरों से सजाया गया है| प्रदेश सरकार देशी-विदेशी मेहमानों के स्वागत में कोई कमी नहीं रखना चाहती है| बाटी-चोखा रेस्टोरेंट मेहमान नवाजी में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहता है| बाटी-चोखा रेस्टोरेंट भी विदेशी इन्वेस्टरों को देशी व्यंजन खिलाकर व मेहमान नवाजी कर एक अलग सन्देश देगा| इसे लेकर अलग-अलग ढंग से तैयारियां चल रही हैं|
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बाटी-चोखा रेस्टोरेंट की लोकप्रियता की स्थिति यह है कि यहां देश के बड़े-बड़े पत्रकार, प्रमुख राजनेता, बैंकर भी देशी व्यंजनों का स्वाद लेने अक्सर आते हैं। हाल में ही एचडीएफसी के चेयरमैन आदित्य पुरी भी बाटी-चोखा रेस्टोरेंट में पधारे व देशी भोजन का स्वाद ग्रहण कर इसकी तारीफ की। उनके साथ एचडीएफसी बैंक के वरिष्ठ अधिकारी भी मौजूद थे जिन्होंने मां-दादी के हाथों जैसा बना खाना खाकर इसकी तारीफ की।
आप को बता दें कि बाटी-चोखा रेस्टोरेंट भारतीय खान पान की पारम्परिक परम्परा को सहेज कर आप तक पहुंचाने में सबसे आगे है। जिसकी सोच में ही ‘मैं नजर आता हूँ’ यानी “टेस्ट ऑफ बनारस” । यहाँ  ठेठ देशीपन की दस्तक आपको बहुत हौले से दिखाई देगी। रेस्टोरेंट के बाहर से ही  गाँव और दादी माँ के चूल्हे से आती सोंधी खूशबू बरबस जेहन में समा जायेगी। यही वजह है कि पिछले 15 सालों से पूर्वान्चल के घरों के चूल्हे का स्वाद और परम्परागत तरीके से पकवान की विधा से तैयार लजीज भोजन ने देखते ही देखते हर किसी की स्‍वाद ग्रंथियों पर कब्ज़ा जमा लिया है।
बाटी-चोखा रेस्टोरेंट के गेट पर ही मिट्टी से बना द्वार और उस पर बनी बनारस की पारम्परिक मसबरी कला का नमूना नज़र आने लगता है। उसके आगे गाँव के पुराने घरों की संस्कृति और परम्परा को सहेज कर रखने वाला लकड़ी की नक्काशी का खूबसूरत चौखठ सब का स्वागत करता है। इस गेट को देखकर आपके मन में रेस्टोरेंट को लेकर कई  सवाल उठने लगेंगे जिसका जवाब जैसे ही आप गेट के अंदर जायेंगे तभी से मिलना शुरू हो जाता है। रेस्टोरेंट के आगे गाँव के घर की दालान की तरह ही दालान है जहां लकड़ी का पुराना बक्सा, प्राचीन कलाकृतियों को सहेजे मिट्टी का घड़ा, और जांता पर चना पीसती महिलाएं आज के आधुनिक चकाचौंध के बीच सुकून भरा एहसास दिलाती हैं ।
 इस एहसास की जीवन्तता रेस्टोरेंट के अंदर सजीव हो उठती है। रस्सी से बंधे बाँस-बल्ली के छाजन के नीचे लकड़ी की खाट जिसे हमारे इलाके में प्यार से लोग बँसखट कहते हैं, वो नजर आती है। दीवार पर गंगा के किनारे अर्धचंद्राकार मुक्ताकाशीय मंच से नजर आने वाले घाट की सजीव तस्वीरें बरबस आपको ‘मेरी’ याद दिला देगी। कुँए की जगत, छोटा सा मन्दिर, लालटेन की रोशनी, बादाम का पत्तल, मिट्टी के कसोरे के साथ मिट्टी की दीवाल की खुशबू खाने के स्वाद को दुगुना कर देती है। इसके साथ ही मिजाज तारी रहे इसके लिये सन् चालीस के दशक से लेकर सन् सत्तर के दशक तक के पुराने तराने इसे खान पान के पायदान में अव्वल रखता है।

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ये तो हुई रेस्टोरेंट के परिवेश और माहौल की बात क्योंकि इसे देखकर आपको अपने गाँव के परिवेश का जायका तो मिल गया लेकिन आप यहां जिस जायके के लिये आये हैं उसका स्वाद तो अभी बाकी है, जो सबसे अलग है। और ये स्वाद सबसे अलग कैसे तैयार होता है इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है। हमारे अपने लोग स्टार्टअप इण्डिया को आज बहुत सुन रहे होंगे लेकिन इस रेस्टोरेंट को शुरू करने वाले तीन युवाओं ने 15 साल पहले खान पान के अपने शौक को इस रेस्टोरेंट में तब्दील कर दिया। चूंकि हमारे अपने शहर में बाहर पिकनिक मानाने जाने वाले युवा बाटी-चोखा, दाल-चूरमा और खीर बड़े शौक से बना कर खाते हैं, इसलिए इन तीन युवाओं में भी हमारे इलाके के इस पारम्परिक खान पान को बनाने का शौक था। कोई मिटृी की हांडी में दाल बनाने में, कोई बाटी-चोखा बनाने में, तो कोई चूरमा और खीर बनाने में माहिर था। ये महारत जब रेस्टोरेंट के चूल्हे से निकल कर खाने के टेबुल पर लोगों तक पहुंची तो इन तीन युवाओं का शौक देखते ही देखते स्वाद की बुलंदियों पर पहुँच गया।
शोहरत चारों तरफ फ़ैल गई। मांग बढ़ी तो स्वाद का ये कारवां दूसरे शहरों की तरफ बढ़ा। इसके साथ ही चुनौतियाँ भी बढ़ीं और ये चुनौतियां बुलन्दी पर टिके रहने की थी क्योंकि खाना बनाने का तरीका और हाथ तो सधा था पर जायके को दुरुस्त रखने वाले मैटीरियल पर भरोसा नहीं था। लिहाजा स्वाद की उस खुशबू के लिये ये युवा मुड़ चले गाँव की मिटटी की तरफ। वहां कंपोस्ट खाद से बिना पेस्टीसाइड डाले सब्जी उगाने लगे, गेहूं और चना भी इसी विधि से उपजाया जाने लगा। साथ ही दूध, दही, घी तेल, अचार भी  तैयार होने लगे। जब ये मैटेरियल अपनी देख रेख में देशी अंदाज में तैयार होकर मिलने लगा तो बनाने की विधि में तो महारत थी ही स्वाद के साथ सोंधापन व लज्‍जत आ गयी। एहतियात यह भी था कि आज के मशीनी युग जैसे मिक्सी, कुकर, नानस्टिक कढ़ाई, नानस्टिक तवा, चक्की का प्रयोग न हो। आज भी यह पूरा एहतियात बाटी-चोखा रेस्टोरेंट रखता है। यहाँ जाँते पर सत्तू तो चकरी से अरहर की दाल तैयार होती है। चटनी सिल बट्टे पर  तो दाल  और दही के लिए दूध का इस्‍तेमाल कण्डे की आग में मिट्टी के बर्तन में होता है। चोखे के लिये आलू , बैगन टमाटर भी आग में ही भूने जाते हैं।

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