भारत के थके शहर : नए विकास मंत्री के लिए चुनौती
जून 1990 में एक मीडिया प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के तौर पर जब मैंने तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ एक बहुपक्षीय सम्मेलन के लिए कुआला लंपुर का दौरा किया था, तब भारतीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल हर सदस्य मलेशिया की आकर्षक राजधानी – उसकी साफ सुथरी सड़कों, उसके शानदार सिटी सेंटर, गगनचुंबी इमारतों और वहां के अच्छी गुणवत्ता वाले जीवन से बेहद प्रभावित हुआ था।
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व्यवथित शहरों के पुनर्निर्माण की कोई योजना है
भारतीय प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी पहली विदेश यात्रा पर गए सिंह ने भारत लौटते समय वरिष्ठ पत्रकारों से बात की, तो मैंने उनसे कुआला लंपुर के एक शिशिल औपनिवेशिक बस्ती से एशिया के शीर्ष शहरों में से एक बनने का जिक्र किया। मैंने कहा कि हालांकि विश्वभर में शहरों के पुनर्निर्माण का चलन है, लेकिन भारतीय शहर केवल बदतर होते नजर आते हैं। मैंने साथ ही उनसे पूछा कि नई सरकार के मुखिया होने के नाते क्या उनकी हमारे प्रदूषित और अव्यवथित शहरों के पुनर्निर्माण की कोई योजना है?
नेहरु से लेकर मोदी तक शहरो के विकास की रुप रेखा तैयार करने में किसी की रुचि नही
प्रधानमंत्री ने एक क्षण सोचकर कहा, “हां, मुझे लगता है कि हमें इसके लिए एक उच्चस्तरीय समिति बनानी चाहिए।”वी.पी. सिंह ने बुनियादी ढांचे में कुछ सुधारों पर विचार किया, लेकिन उनकी सरकार जल्द ही ‘आरक्षण की राजनीति’ में फंस गई और वह इस मामले में ज्यादा कुछ नहीं कर पाए।देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अलावा – शायद आज के समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक – किसी भी प्रधानमंत्री के पास देश के शहरों के विकास की रूपरेखा तैयार करने का न तो समय है और न ही नीतिगत रुचि।
नेहरू का अपने देश को लेकर एक व्यापक दृष्टिकोण था और उन्होंने उस दौर के सबसे प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय वास्तुकार ली कॉरबसियर को चंडीगढ़ का निर्माण करने का जिम्मा सौंपकर भारत को पहला सुनियोजित शहर दिया था।
स्ताहाल सड़कों जैसी चुनौतियों से निपटने में नगर निगमों की नाकामी सामने आई है
ग्रामीण से शहरी भारत की ओर पलायन के कारण इसके कई नगर और कस्बे जनसंख्या विस्फोट के कगार पर हैं, झुग्गी बस्तियों का असीमित विस्तार हो गया है, शहर के बुनियादी ढांचे के स्तर में लगातार गिरावट आई है और मुंबई में बाढ़ हो, दिल्ली में डेंगू या बेंगलुरू की खस्ताहाल सड़कों जैसी चुनौतियों से निपटने में नगर निगमों की नाकामी सामने आई है।
नालियों या स्वच्छता के मामलों में कोई गड़बड़ी होने पर किसे जिम्मेदार ठहराएं
राजधानी की एक प्रमुख समस्या नगरीय प्रशासनों की बहुलता भी है, जिन्हें अपने कार्यक्षेत्र के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, जिसका नतीजा निरीह नागरिकों को भुगतना पड़ता है और जिन्हें यह भी नहीं पता होता कि किस परेशानी के लिए किस प्रशासन से गुहार लगाएं या सड़कों, बुनियादी ढांचे, बगीचों, पानी, बिजली, नालियों या स्वच्छता के मामलों में कोई गड़बड़ी होने पर किसे जिम्मेदार ठहराएं।
इस प्रकोप की जड़ में पुरानी और शिथिल नौकरशाही है
पत्रकार से आम आदमी पार्टी के नेता बने आशीष खेतान ने पिछले साल लिखा था, “दिल्ली में मच्छर जनित बीमारियों का बड़े पैमाने पर प्रकोप मोदी द्वारा किए गए नीतिगत सुधारों के वादों के महत्व को रेखांकित करता है। इस प्रकोप की जड़ में पुरानी और शिथिल नौकरशाही है।
दुनिया के अन्य शहर ऐसे संकटों से कैसे निपटते हैं? सबसे पहली बात हर स्थान की शासन व्यवस्था नागरिकों की जरूरतों, परेशानियों और हितों के प्रति जवाबदेही के लिए तैयार होती है। बेशक, विभिन्न विषयों से निपटने के लिए विविध ऐजेंसियां होती हैं, लेकिन वे सभी एक ही प्रशासन – एक ताकतवर निर्वाचित अधिकारी यानी शहर के महापौर के तहत पूर्ण समन्वय के साथ काम करती हैं, जो प्रशिक्षित प्रशासकों की अपनी टीम खुद चुनता है, जो नतीजों के प्रति जवाबदेह होते हैं।
वे दो उपमहापौरों के साथ काम करते हैं
उदाहरण के तौर पर लंदन में सीधे तौर पर निर्वाचित महापौर पाकिस्तानी मूल के सादिक खान एक शासी परिषद की अध्यक्षता करते हैं। इस परिषद में पुलिस, दमकल विभाग, शहर के प्रबंधन, उद्यान प्रशासन, स्वच्छता, अपशिष्ट निपटान आदि के प्रतिनिधि होते हैं। वे दो उपमहापौरों के साथ काम करते हैं और दोनों ही भारतीय मूल के हैं। जब भी किसी प्रकार का कोई संकट उत्पन्न होता है, तब महापौर महत्वपूर्ण कार्य अपने हाथ में लते हैं और मुद्दों को सुलझाते हैं।
पूरी जिम्मेदारी से कार्य करते हैं
न्यूयॉर्क में जब कोई संकट उत्पन्न होता है, तो एक-दूसरे पर दोषारोपण करती कई आवाजें नहीं सुनाई देतीं, बल्कि महापौर बिल डी ब्लासियो शहर और उसके नागरिकों के लिए आवाज उठाते हैं और पूरी जिम्मेदारी से कार्य करते हैं।
भलाई के विरुद्ध नागरिक अनुशासनहीनता के कृत्यों में लागू होता है
पूरब से लेकर पश्चिम तक, दुनिया के अधिकांश आधुनिक शहरों में यही स्थिति है। वहां नागरिक और शहरी कानून हैं, जिनका उनके नागरिक कठोरता से पालन और सम्मान करते हैं। अगर कहीं भी कानून तोड़ा जाता है, तो व्यवस्था बिना किसी भेदभाव के उनके साथ कड़ाई से पेश आती है। यह यातायात नियमों के उल्लंघन, शहर में गंदगी फैलाने, सार्वजनिक दीवारों को बिगाड़ने, प्रदूषण फैलाने या समाज की भलाई के विरुद्ध नागरिक अनुशासनहीनता के कृत्यों में लागू होता है।
भ्रष्ट निगम के कचरे के ढेर में फेंकने के समान होगा
नए शहरी विकास मंत्री हरदीप पुरी एक अनुभवी राजनयिक और नौकरशाह हैं। उन पर एक ऐसे एजेंडे को पूरा करने की जिम्मेदारी है, जो सुदूर भविष्य के भारत के लिए ‘स्मार्ट शहरों’ की परिकल्पना करता है। अपनी पहली र्सावजनिक घोषणाओं में से एक में पुरी ने राजधानी में आधुनिक अपशिष्ट (कचरा) प्रबंधन के लिए अधिक धन की घोषणा की है, लेकिन जब तक शहर की स्थिति में सुधार के लिए सरकारी नीति में व्यापक बदलाव नहीं होता, तब तक महज बजट से समर्थन देना जनता के पैसों को भ्रष्ट निगम के कचरे के ढेर में फेंकने के समान होगा।
कार्यबल और परिवारों की जरूरतों को पूरा करने के लिए तैयार हैं
एशिया के 30 सबसे बड़े शहरों की रैंकिंग करने वाले ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स के एक अध्ययन के मुताबिक, दिल्ली को एशिया के सबसे तेजी से बढ़ते शहर के रूप में प्रचार किया जाता है और इस क्षेत्र में भारतीय शहरों का सबसे अधिक विस्तार होना तय है। लेकिन क्या ये शहर रहने योग्य और अपने फैलते व्यापार, कार्यबल और परिवारों की जरूरतों को पूरा करने के लिए तैयार हैं?
बेंगलुरू दुनिया के सबसे अधिक संकटग्रस्त शहर हैं
प्रतिष्ठित वास्तुकार गौतम भाटिया ने हाल ही में भारतीय शहरों की तुलना आपदा होने का इंतजार करते बारूद के ढेर से की थी। एक अन्य शोध के अनुसार, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और बेंगलुरू दुनिया के सबसे अधिक संकटग्रस्त शहर हैं।
अगर स्थानीय शासन प्रणाली में कोई ठोस बदलाव नहीं किया गया, तो भारतीय शहर और उनमें रहने वालों को मोदी द्वारा किए गए ‘अच्छे दिन’ के वादे के विपरीत सर्वनाशक समय के लिए तैयार रहना होगा।
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