धारा 377 : सुप्रीम कोर्ट तय करेगा समलैंगिकता अपराध है या नहीं
सुप्रीम कोर्ट समलैंगिकता को अपराध घोषित करने वाली भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 पर अपने पुराने फैसले की समीक्षा करने के लिए राजी हो गया है। समलैंगिकता अपराध है या नहीं, यह तय करने का काम अब सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ करेगी। हालांकि बुधवार को संविधान पीठ सिर्फ ये तय करेगी कि ये याचिका सुनवाई योग्य है या नहीं।
कौन-कौन है संवैधानिक बेंच में
इस मामले की सुनवाई जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए एम खानविलकर और डी वाय चंद्रचूड़, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण की बेंच कर रही है।
क्या है धारा 377 ?
आईपीसी की धारा 377 के अनुसार यदि कोई वयस्क स्वेच्छा से किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करता है तो, वह आजीवन कारावास या 10 वर्ष और जुर्माने से भी दंडित हो सकता है। आईपीसी की इस धारा से संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के उल्लंघन और मौलिक अधिकारों के हनन का हवाला देते हुए समलैंगिकता की पैरोकारी करने वाले नाज फाउंडेशन ने दिल्ली हाई कोर्ट में इसे खत्म करने की मांग की।
2 जुलाई 2009 को दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा वयस्कों द्वारा आपसी रजामंदी से स्थापित किए जाने वाले यौन संबंधों के संदर्भ में धारा 377 को असंवैधानिक घोषित कर दिया। हालांकि बाद में भारतीय समाज की जटिलताओं और परिवेश को ध्यान में रखते हुए समलैंगिकता को जायज ठहराने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को अवैध ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर 2013 को कहा कि आइपीसी की धारा 377 को हटाने का अधिकार संसद के पास है और जब तक यह लागू है तब तक इसे अवैध नहीं ठहराया जा सकता है। औपनिवेशिक काल के दौरान 1860 में बना यह कानून अप्राकृतिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखता है।
फिर से याचिका किसने दायर की थी?
क्युरेटिव पिटीशन भी एलजीबीटी कम्युनिटी की तरफ से दायर की गई है। कोर्ट से अपील की गई कि जेंडर पहचान नहीं मिलने से उन्हें डर के माहौल में जीना पड़ रहा है। याचिका दायर करने वाले पांच लोग हैं…
अमननाथ – नीमराणा में होटल का मालिक
नवतेज जौहर – शास्त्रीय नर्तक
रितु डालमिया – दीवा ग्रुप ऑफ होटल्स
सुनील मेहरा – ‘आउटलुक’ के पूर्व संपादक
आयशा कपूर – रेस्तरां मालिक
सिब्बल ने बताया संवैधानिक अधिकार
सुप्रीम कोर्ट के 2013 के फैसले पर क्यूरेटिव पिटीशन की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वकील कपिल सिबल ने वयस्कों के बीच बंद कमरे में सहमति से बने संबंधों को संवैधानिक अधिकार बताया। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही नहीं था। समलैंगिकों की गरिमा को ठेस लग रही है। इस फैसले का असर आने वाली पीढ़ियों पर भी पड़ेगा। जबकि अदालत में मौजूद चर्चेज ऑफ इंडिया और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वकीलों ने याचिका का विरोध किया।
सिब्बल और अरविंद दातार ने कहा कि संविधान के भाग-III के तहत गारंटी के साथ अन्य मूलभूत अधिकार जिसमें लैंगिकता, यौन स्वायत्तता, यौन साथी, जीवन, गोपनीयता, गरिमा और समानता के अधिकार भी दिए गए हैं, लेकिन भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 377 याचिकाकर्ताओं के अधिकारों का हनन करती है।
कोर्ट ने क्या कहा
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस मामले पर कहा कि सुप्रीम कोर्ट धारा 377 की संवैधानिक वैधता पर दोबारा विचार करेगी। बेंच ने यह भी कहा, ‘अपनी पसंद का इस्तेमाल करने वाले कुछ लोगों या व्यक्तियों को डर की स्थिति में नहीं रहना चाहिए। लोगों का चुनाव कानूनी सीमा से बाहर नहीं होना चाहिए, लेकिन कानून की सीमाएं भी संविधान में अनुच्छेद 21 के तहत मिले अधिकारों में कटौती करने वाली नहीं होनी चाहिए।’
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नाज फाउंडेशन मामले में सुप्रीम कोर्ट के 2013 के फैसले पर फिर से विचार करने की जरूरत है क्योंकि कोर्ट को लगता है कि इसमें संवैधानिक मुद्दे जुड़े हुए हैं। दो व्यस्कों के बीच शारीरिक संबंध क्या अपराध हैं, इस पर बहस जरूरी है। अपनी इच्छा से किसी को चुनने वालों को भय के माहौल में नहीं रहना चाहिए। कोई भी इच्छा के तहत कानून के चारों तरफ नहीं रह सकता लेकिन सभी को अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार के तहत कानून के दायरे में रहने के अधिकार है। सामाजिक नैतिकता वक्त के साथ बदलती है। इसी तरह कानून भी वक्त के साथ बदलता है।
मामले में क्या हुआ था
इस मामले में 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाने का फैसला दिया था, जिसे केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिसने दिसंबर, 2013 में हाईकोर्ट के आदेश को पलटते हुए समलैंगिकता को IPC की धारा 377 के तहत अपराध बरकरार रखा। दो जजों की बेंच ने इस फैसले पर दाखिल पुनर्विचार याचिका भी खारिज कर दी थी।
चार जजों ने दी थी इजाजत
इसके बाद, 23 अप्रैल, 2014 को चार जजों- तत्कालीन चीफ जस्टिस पी सदाशिवम, जस्टिस आरएम लोढा, जस्टिस एचएल दत्तू और जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय – की बेंच ने क्यूरेटिव पिटीशन पर खुली अदालत में सुनवाई करने का फैसला दिया था, लेकिन अब ये चारों जज भी रिटायर हो चुके हैं। हालांकि 2013 में ही सुप्रीम कोर्ट की दूसरी बेंच ने एक बड़ा फैसला सुनाते हुए ट्रांसजेंडरों को तीसरी कैटेगरी में शामिल कर उन्हें ओबीसी के तहत आरक्षण और दूसरी सुविधाएं देने के आदेश दिए थे, हालांकि उस समय बेंच ने समलैंगिकता के आदेश पर कोई टिप्पणी नहीं की थी।
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वकीलों ने कहा हालांकि कौशल फैसले के खिलाफ क्यूरेटिव याचिका सुप्रीम कोर्ट के सामने लंबित है लेकिन याचिकाकर्ताओं द्वारा वर्तमान याचिका में धारा 377 को दी गई चुनौती के मुद्दे अलग-अलग हैं। क्यूरेटिव याचिका में याचिकाकर्ता ने कानून के निम्नलिखित प्रश्न उठाए हैं
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क्या भारतीय दंड संहिता की धारा 377 भारत के संविधान के भाग III के तहत असंवैधानिक और उल्लंघनकारी है, और इसे रद्द किया जाना चाहिए ?
वैकल्पिक रूप से चाहे भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को निजी तौर पर वयस्कों के समलैंगिक यौन कृत्य पर इस्तेमाल करने से अलग किया जा सकता है ताकि इस तरह के सहमति वाले वयस्कों के मौलिक अधिकार सुरक्षित-संरक्षित हों?
याचिकाकर्ताओं के मुताबिक, स्वतंत्र भारत में क़ानून की किताबों में आईपीसी 377 जारी रखने से ये बहुत स्पष्ट हो जाता है कि संवैधानिक अनुबंध के आधार पर समानता, बिरादरी, गरिमा, जीवन और स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटीयां जिनसे देश की स्थापना हुई थी, उन्हें याचिकाकर्ताओं तक नहीं बढ़ाया गया है।
(साभार- जनसत्ता)