कभी 34 रुपये पर करते थे काम, आज हैं 20 करोड़ की कंपनी के मालिक

0

मात्र 16 वर्ष की उम्र में उनके सिर से माता-पिता का साया गया था। जिसके बाद उनके सामने ऐसा समय भी आया, जब उन्हें फाका करना पड़ा और कई बात को उन्हेंय यह भी नहीं पता होता था कि अगली बार खाना कब नसीब होगा। ये कहानी है अल्केश अग्रवाल, जो आज 20 करोड़ की कंपनी के मालिक हैं। आज हम आपको अल्केश अग्रवाल की सफलता की कहानी बातएंगे…

अल्केश के सिर से माता-पिता का साया उठने के बाद उन्होंने कंप्यूटर पढ़ाना शुरू किया और मित्रों की सहायता से उद्यमिता के क्षेत्र में आये।4 दोस्तों के साथ मिलकर उन्होंने प्रिंटरों के पुराने कार्टरेज रीफिल करने वाली कंपनी ‘री-फील कार्टरेज इंजीनियरिंग प्राईवेट लिमिटेड’ की नींव रखी।वर्ष 2010 में मीडिया की दिग्गज कंपनी टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ उन्होंने 15 करोड़ रुपये का करार किया। वर्ष 2010 में ही ब्रिटिश कंपनी टीएलजी कैपिटल ने उनकी कंपनी की कीमत करीब 5 मिलियन अमरीकी डॉलर आंकी और 36 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीदी।

देर रात तक करते हैं काम

अल्केश कहते हैं कि ‘मेरी मां ने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि चाहे जो भी हो जाए मैं कभी भी अपनी पढ़ाई न छोड़ूं। यहां तक कि अगर मैं अपना जीवन-यापन करने के लिये कोई काम भी कर रहा हूं तो भी मैं अपनी पढ़ाई जारी रखूं। मैं अक्सर रात को 11 बजे तक काम करता हूं।’

जो भी किया एक अलग अंदाज में किया

अल्केश के साथ जो कुछ भी हुआ उसे किसी भी तरह से उचित तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन जीवन में सामने आने वाली कठिन परिस्थितियों ने उन्हें और भी मजबूत बनाया और इन्हीं के बदौलत वे अपने भीतर की सकारात्मकता को बाहर लाने में कामयाब रहे और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अधिक और कठिन परिश्रम करने को तत्पर हुए। इन्हीं सब कारणों के चलते वे इस बुरी और बड़ी दुनिया से दूसरों के मुकाबले पांच वर्ष पूर्व ही रूबरू हो गए, लेकिन तब भी उन्होंने जो किया उसे अपने ही एक अलग अंदाज में किया।

मेहनत सफल होती दिखी

अल्केश कहते हैं कि ‘हालांकि उस समय भी मैंने जो कुछ भी करने का विचार किया मैं उसे अपने एक अलग अंदाज में ही करता था।’समय के साथ उनकी मेहनत सफल होती दिखी, उन्होंने अधिक मेहनत करनी प्रारंभ की और एनआईआईटी में छात्रों को कंप्यूटर का बुनियादी प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया जिसके बदले में उन्हें प्रतिसप्ताह 240 रुपये प्राप्त होते थे और वे आराम से अपनी कॉलेज की फीस के 1240 रुपये की व्यवस्था करने में कामयाब रहे। इसके कुछ समय बाद उन्होंने कंप्यूटर की मरम्मत करने का एक केंद्र शुरू किया और इस काम की बदौलत प्रतिमाह उनके बैंक एकाउंट में 10 हजार रुपये आने लगे।

कुछ बड़ा करने की ठानी

कुछ वर्षों तक कंप्यूटरों के साथ काम करने के बाद अल्केश को लगा कि अब वह समय आ गया है, जब उन्हें या तो कुछ बड़ा करना है या फिर वापस घर लौट जाना है। उन्होंने अपने बचपन के एक मित्र और भविष्य के व्यापारिक साझीदार अमित बरमेचा पर भरोसा करके कंप्यूटर की मरम्मत का काम उनके हवाले किया और उन बड़ी मुश्किलों की तलाश में चल दिये, जिनका वे आसानी से समाधान निकाल सकते थे।

अल्केश के पास था समाधान

अपनी इसी तलाश में उन्हें मालूम हुआ कि अधिकतर उपभोक्ताओं के लिये प्रिंटरों की स्याही समाप्त होने के बाद उनके कार्टेरेज को बदलना एक ऐसा काम है, जिसकी कीमत चुकाना हर किसी को बहुत भारी लगती है। इसके अलावा प्लास्टिक के बने इन पुराने कार्टरेज को निबटाना भी अपने आप में एक बहुत बड़ी चुनौती था। करीब 35 मिलियन टन प्लास्टिक को सालाना 17 फुटबॉल के मैदानों के बराबर के इलाकों में जमीन में दबाया जा रहा था, जो पर्यावरण के लिये बहुत ही नुकसानदायक था। अल्केश की नजरों में इसका एक ही समाधान था। जिसमें इन्हें रिसाइकिल करते हुए इनकी लागत को कम करने के अलावा प्रत्येक कार्बन प्रिंट की कीमत को भी कम करने का था।

दोस्तों ने दिया पूरा साथ

अल्केश बताते हैं कि ‘मैं इस मामले में बहुत खुशकिस्मत हूं कि मुझे चार ऐसे अच्छे दोस्त मिले हैं, जो सिर्फ कहानियों में ही मिलते हैं।’अल्केश के सबसे अच्छो दोस्तों राजेश अग्रवाल, समित लखोटिय और अमित ने उनका पूरा साथ दिया और उनके इस विचार को अमली जामा पहनाने में मदद करने के लिये अपनी जीवनभर की बचत को उनके हवाले कर दिया। और अपने इन मित्रों के सहयोग और 2 लाख रुपये की एक मामूली पूंजी के साथ अल्केश ने कुछ सवालों के जवाब तलाशने की अपनी यात्रा का आगाज किया।

चीन में ठगे गए

पुराने समय को याद करते हुए अल्केश कहते हैं, कि ‘मैं करीब ढ़ाई महीने तक चंढीगढ़, लुधियाना, अमृतसर और दिल्ली के बीच सफर करता रहा। उस समय इन इलाकों की गली-मोहल्लों तक का कोई ऐसा दुकानदार नहीं था, जिससे मैंने अपने काम के सिलसिले में बात करने के लिये संपर्क न किया हो।’ सफर का यही दौर उन्हें चीन तक ले गया, जहां उनका सामान खो गया और वे ठग लिये गए। ऐसे में उनके पास खाने तक के लिये पैसे नहीं थे और किस्मत से उनके पास घर से पैक करके ले जाई गई काजू की बर्फी थी, जिसने उनका साथ दिया।

‘कार्टरेज वर्ल्ड’ से किया संपर्क

इस दौरान अल्केश ने पाया कि पुराने कार्टरेज को निबटाने का काम बिल्कुल शैशवावस्था में होने के अलावा बिल्कुल असंगठित भी है और ऐसे में ‘कार्टरेज वर्ल्ड’ इस क्षेत्र पर राज कर रही है। ऐसे में अल्केश ने बाजार के इस अगुवा के साथ गठबंधन करने का फैसला किया।

दिखाई दी रोशनी की किरण

उन्हें वहां से टका सा जवाब मिला, ‘एक फ्रेंचाइजी के लिये एक करोड़ रुपये।’कुल मिलाकर इन चारों के पास उस समय सिर्फ दो लाख रुपये थे और इन्हें लगा कि ये लोग किसी अंधे कुंए में फंसे हैं और तभी इन्हें अंधेरे में रोशनी की एक किरण दिखाई दी और चारों ने अपना ब्रांड शुरू करने का फैसला किया, जिसमें उत्कृष्ता पर अपना ध्यान दिया गया।

ब्रांड का नाम रखा री-फील

इस काम को करने के लिये पूरी योजना तैयार करने के बाद इन चारों ने एक ऐसा नाम चुना, जो इस काम के साथ मिलता था और नाम रखा री-फील (Re-Feel)। अल्केश ने पैसा बचाने के लिये खुद ही लोगों इत्यादि तैयार करने के फैसला किया और सिर्फ 30 दिनों में ही फोटोशॉप सीखने में सफल रहे।

2007 में शुरू की कंपनी

इसके बाद 9 फरवरी 2007 का वह दिन आया, जब इन चारों के इस ब्रांड को भौतिक मौजूदगी प्रदान करते हुए एक मामूली से दफ्तर से री-फील की शुरुआत हुई। इसके साथ ही उन्होंने एक दूर का सपना भी देखना शुरू किया, जो एक बड़ा सा शोरूम प्रारंभ करने का था और इस सपने को सच करने के लिये कम से कम 25 लाख रुपये की आवश्यकता थी, जो उस समय इनके लिये दूर की कौड़ी थी। समय से आगे की सोच लेकर चलने वाले अल्केश ने भविष्य की सोची और अपने इस ब्रांड की फ्रेंचाइजी देने का फैसला किया और वह भी सिर्फ एक लाख रुपये के मामूली से निवेश में।

दी पहली फ्रेंचाइजी

‘हर काम के होने का एक समय और तरीका नियत होता है,’ दार्शनिक वाले अंदाज में अल्केश कहते हैं। ‘ईश्वर हमारी तरफ मेहरबानी से देख रहा था। अभी हमें काम शुरू किये हुए सिर्फ 10-15 दिन ही हुए थे और हमारे पास एनएम बोथरा एक देवदूत की तरह पहली फ्रेंचाइजी लेने के लिये आए।’ जल्द ही इनके पास उन्हीं बोथरा के द्वारा दूसरी फ्रेंचाइजी की भी पेशकश आई।

खेला दूसरा जुआं

हालांकि शुरूआत उनकी अपेक्षाओं से कहीं बेहतर रही थी, लेकिन बढ़ते खर्चों के चलते उनका बैंक एकाउंट लगातार नीचे जा रहा था। जब उनके पास आखिरी 1.25 लाख रुपये बचे थे तब अल्केश ने एक और जुआ खेलने का फैसला किया और इस बार में मुंबई में फ्रेंचाइजी इंडिया के तत्वाधान में आयोजित होने वाली प्रदर्शनी में भाग लेने का फैसला किया, जो फ्रेंचाइजी देने वालों को फ्रेंचाइजी लेने के इच्छुक लोगों से रूबरू होने का मौका प्रदान करती थी।प्रदर्शनी के आयोजकों के साथ सौदेबाजी करके वे किराये को करीब आधे तक लाने में सफल रहे और मुंबई का रुख किया।

कंपनी में जमा हुए 10 लाख रुपये

अल्केश बताते हैं कि ‘मैं दूसरी कंपनियों की तरह अपने काउंटर पर सुंदर लड़कियों को चारे की तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहता था। इसके अलावा मैं फैंसी लाईटों और आकर्षक बैनरों जैसे दूसरे महंगे साधनों का भी प्रयोग करने का पक्षधर नहीं था। मैं सिर्फ यह चाहता था कि मेरी कंपनी का काम अपने आप बोले और खुद को साबित करे।’उनकी यह योजना काम कर गई और बहुत ही कम समय में उन्हें तीन लोगों ने फ्रेंचाइजी लेने के लिये संपर्क किया और इस प्रकार कंपनी के खाते में 10 लाख रुपये जमा हो गए।

कार्टरेज वर्ल्ड को छोड़ा पीछे

जल्द ही समय ने पलटी खाई और मात्र दो वर्षों के समय में ये बाजार में एक बड़े खिलाड़ी के रूप में खुद को स्थापित करने में सफल रहे। थोड़े ही समय में वह वक्त आया जब इन्होंने अपने सबसे बड़े प्रतियोगी कार्टरेज वर्ल्ड को पछाड़ने में सफलता प्राप्त की और भारतीय बाजार के शीर्ष पर खुद को पहुंचाया।

हर पांचवें दिन भारत में एक स्टोर

अल्केश बताते हैं कि ‘जब कार्टरेज वर्ल्ड के 30 स्टोर थे, हमारे सिर्फ 3 थे और जब वे 50 के आंकड़े तक पहुंचे तो हम भी उनके साथ ही थे और 50 स्टोर के आंकड़े को छू चुके थे। वर्ष 2009 में हमने हर पांचवें दिन भारत में एक स्टोर खोला।’

मीडिया ने दिया पूरा साथ

इसके अलावा मीडिया ने भी इनका पूरा साथ दिया और इन 18 से 20 महीनों के दौरान 100 से भी अधिक लेख इनपर प्रकाशित हुए। इसके अलावा वर्ष 2009 में इन्हें देश की उभरती हुई कंपनी, वर्ष 2009, 2010 और 2011 में लगातार शीर्ष 100 फ्रेंचाइजर्स और वर्ष 2010 में सर्वश्रेष्ठ उपभोक्ता सहायता करने वाली कंपनी के पुरस्कार जीते। इसके अलावा टाईम्स ऑफ इंडिया द्वारा अल्केश को पूर्व के शीर्ष 10 उभरते हुए उद्यमियों में भी शामिल किया गया।

टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ किया करार

वर्ष 2010 आते-आते री-फील अपने आप में एक ब्रांड के रूप में स्थापित हो चुका था और इन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया जैसी दिग्गज कंपनी के साथ 15 करोड़ रुपये के एक करार पर हस्ताक्षर किये। इसके एक वर्ष बाद इन्होंने कुछ ऐसा कर दिखाया जो शायद अबतक उद्यमिता और स्टार्टअप के क्षेत्र में शायद ही किसी ने नहीं किया था और इस बढ़ते हुए स्टार्टअप ने कंपनी से अपनी इक्विटी वापस खरीद ली।

Also read : जानें, एक ही रात के लिए विवाह क्यों करते हैं किन्नर

ब्रिटिश कंपनी ने खरीदी हिस्सेदारी

इसके तुरंत बाद एक ब्रिटिश कंपनी टीएलजी कैपिटल ने 10 करोड़ रुपये की री-फील कार्टरेज इंजीनियरिंग प्राईवेट लिमिटेड की कीमत को 53 करोड़ रुपये यानी कि करीब 5 मिलियन अमरीकी डॉलर आंका और कंपनी की 36 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीद ली। इसके बाद इन्होंने अपने संपूर्ण स्वामित्व वाली एक सहायक कंपनी क्लबलैपटॉप की नींव रखी। इस बीच इनकी मूल कंपनी देश के दूसरे हिस्सों में विस्तार कर रही थी और वर्तमान में देशभर के 83 स्थानों पर इनके 100 से भी अधिक स्टोर सफलतापूर्वक संचालित हो रहे हैं।

800 से अधिक लोग उनके साथ कर रहे हैं काम

अब जब उनकी झोली सफलताओं से पूरी तरह भरी हुई है अल्केश का कहना है कि एक पूर्णतः प्रतिबद्ध टीम का निर्माण और उनके व्यक्तिगत विकास में कंपनी के योगदान के अलावा सफलता की सीढ़ी चढ़ना उनकी अबतक की सबसे बड़ी उपलब्धि रही है। वर्ष 2011 आते-आते 16 सदस्यीय यह टीम 100 लोगों की एक प्रतिबद्ध सेना में तब्दील हो चुकी है और इसके अलावा 800 से अधिक लोग इनके फ्रेंचाइजी के साथ भी काम कर रहे हैं।

जल्दी ही अपना घर खरीदने जा रहे हैं

वे आगे कहते हैं ‘मैंने नौसखियों को साथ लेकर एक टीम को तैयार किया। बीते 8 वर्षों के दौरान कई लोग हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे और कंपनी के साथ ही उन्होंने भी वृद्धि की। मेरे यहां व्यवस्था का काम देखने वाले आज वरिष्ठ प्रबंधक हैं और एमबीए कर चुके 10 युवा उनके नीचे काम कर रहे हैं और जल्द ही वे अपना घर भी खरीदने की योजना बना रहे हैं।’

Leave A Reply

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More