बेचते हैं चाय, और बांटते हैं कुछ कर गुजरने का जज्बा
भारत जैसे देश में गली मोहल्ले से लेकर नुक्कड़ पर चाय बेचने वाले आपको कई मिल जाएंगे, कुछ की चाय शायद आप हमेशा पीते भी होंगे। लेकिन आप एक बार मिलिए लक्ष्मण राव से, जो दिल्ली में हिन्दी और पंजाब भवन के बीच फुटपाथ पर चुपचाप चाय बनाते रहते हैं। मगर यह अन्य चायवालों से अलग है।
दिल्ली के आईटीओ इलाके में सड़क के किनारे एक छोटी सी स्टॉल लगाने वाले लक्ष्मण के पास जो एक बार आता है, वो फिर बार-बार यहीं आता है। क्योंकि यहां चाय के साथ-साथ उन इंसानों को कुछ कर गुजरने का जज्बा भी मिलता है जो जिंदगी की जंग हार चुके हैं।
24 पुस्तकें हो चुकी हैं प्रकाशित
पटरी पर रखे स्टोव पर उबलती हुई चाय और उसके साथ ही किनारे में रखी कुछ किताबें 1973 के उस दौर की कहानी बयां करती हैं, जब 21 साल के राव महाराष्ट्र के अमरावती शहर से भोपाल होते हुए दिल्ली आए थे। 62 साल के लक्ष्मण राव को किताबों का बहुत शौक है और उनकी अब तक 24 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से एक किताब के लिए उन्हें पुरस्कार भी मिल चुका है।आज हिंदी, अंग्रेजी और मराठी समेत दूसरी भाषाओं में लक्ष्मण राव की सैंकड़ों इंटरव्यू प्रकाशित हो चुकी है। इनकी हिम्मत को विदेशी मीडिया ने भी सराहा है और इनके इंटरव्यू को प्रकाशित किया हैं।
ग्राहकों के इर्द-गिर्द घूमती हैं राव की किताबें
इन किताबों में राव के ग्राहकों और उनके आसपास से जुड़े लोगों की कहानियां शामिल हैं। इनका एक फेसबुक पेज भी है और इनकी किताबें अमेजन और फ्लिपकार्ट पर बेची जाती हैं। यही नहीं इनकी एक किताब का तो अंग्रेजी में अनुवाद हो रहा है जिसके बाद वह किंडल पर पढ़ी जा सकेगी।
संघर्षमय जीवन
दिल्ली आने से पहले लक्ष्मण राव अमरावती में स्थित सूत मिल में टेक्सटाइल मजदूर के रूप में काम करते थे। लेकिन बिजली कटौती के कारण इस मिल के बंद हो जाने के बाद राव अपने पिता जी से 40 रुपये लेकर भोपाल चले गए। लेकिन कुछ महीने भोपाल में गुजारने के बाद राव दिल्ली चले आए।उस वक्त लक्ष्मण सिर्फ 21 साल के थे। पांच साल बाद लक्ष्मण ने विष्णु दिगम्बर मार्ग पर चाय बेचना शुरु कर दिया जहां उस इलाके के लोगों के बीच वह काफी लोकप्रिय हो गए। और उसी के बाद राव ने शुरू किया अपना संघर्ष।
पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने किया सम्मानित
जब राव ने अपना पहला उपन्यास लेकर एक प्रकाशक के पास गए तो उन्हें यह कहकर बाहर निकाल दिया गया कि ‘एक चायवाला क्या लिखेगा?’। बाद में राव की किताब ‘रामदास’ ने 2003 में इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती अवार्ड जीता। संघर्षों के बीच साहित्यकार लक्ष्मण राव अपनी रचना लिखते रहे और इसी दौरान 23 जुलाई 2009 को तब की तात्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल से राष्ट्रपति भवन में मुलाकात हुई।जहां लक्ष्मण राव ने अपनी लिखी पुस्तक ‘रेणू’ राष्ट्रपति को भेंट की। इसके बाद तो राव ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने पाई-पाई बचाकर सात हजार रुपए जमा किए ताकि वह अपनी पहली किताब खुद छाप सकें। इसके बाद उन्होंने साइकल से स्कूलों में जाकर उन लोगों के बीच अपनी किताब को बेचा जिन्हें हिंदी साहित्य में बहुत दिलचस्पी है। जिसके बाद उन्होंने एक के बाद एक 24 किताबें लिख दी। जिनमें- रामदास, रेणु, नर्मदा, अभिव्यक्ति, अहंकार, दृष्टिकोण और प्रधानमंत्री प्रमुख हैं।
इंदिरा गांधी भी हुईं प्रभावित
राव के लेखनी की सभी तारीफ करते थे और यदाकदा उनके बारे में उस समय के राजनेता तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी लक्ष्मण राव की चर्चा करते थे। लक्ष्मण राव की अगर मानें तो पूर्व सांसद शशि भूषण ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने के लिए प्रेरित किया। जिसके बाद 27 मई 1984 को लक्ष्मण राव की मुलाकात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से दिल्ली के तीन मूर्ति भवन में हुई। इस मुलाकात में लक्ष्मण राव ने इंदिरा गांधी से उनकी जीवनी पर लिखने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन इंदिरा गांधी ने उन्हें उनके कार्यकाल पर लिखने की सलाह दी, जिसके बाद लक्ष्मण राव ने ‘प्रधानमंत्री’ की रचना की।