नगाड़ा बजेगा तो नाचूंगा भी- व्योमेश
व्योमेश शुक्ल के फेसबुक वाल से
बचपन में नगाड़ा नायक था. वह मुझे लगातार बुलाता रहता था – उसकी आवाज़ कुछ दूर भी हो तो बाध्य कर देती थी. यह तय था कि अगर कहीं नगाड़ा बज रहा है तो मुझे वहां जाना ही पड़ेगा. मां सारे दांव आज़माकर देख चुकी थीं. मुझे बजते हुए नगाड़े के हवाले कर देने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं था. मामा या दूसरे बंधु-बांधव मुझे नगाड़े की ध्वनि के उस उत्सव में झख मारकर ले जाते थे.
यह भी जान लीजिए कि धुर बचपन में भी मैं नगाड़े का अनक्वालिफाइड प्रशंसक या हक्का-बक्का होकर उस वाद्ययंत्र को ताकने-भर वाला मुरीद नहीं था. मैं उस चैलेंजिंग लयगति का जवाब अपने नृत्य से देता था. अहिरवा – बनारस में यादव जाति का प्रिय नृत्य – मेरा भी प्रिय था – मैं उसमें सिद्ध भी था. बल्कि हूँ.
पिता ज़्यादातर दिल्ली रहते थे. एक बार उनके घर रहते यह मुश्किल आयी. नगाड़ा बजने लगा. बहुत रात हो गयी थी. लेकिन मुझे तो जाना ही था. दरअसल मेरा शरीर बेकाबू हो जाता था. मुझे हर बार नगाड़े से हिसाब बराबर करना था. मैं उसे वॉकओवर नहीं दे सकता था. यह एक प्राकृतिक बात थी. माँ ने पिता से नज़रें बचाकर मुझे शर्माजी के साथ भेजा. वह किसी बुज़ुर्ग की अंतिम यात्रा थी. बहुत-से नौजवान नशे में धुत प्रसन्न नाच रहे थे. मैं भी शुरू हो गया. अब शव उठे तो उस जगह नृत्य समाप्त हो और नृत्य समाप्त हो तो मैं घर जाऊँ. उसके पहले मुझे लौटने के लिये राज़ी करना नामुमकिन था. मौके पर मैं नाचने वालों के मज़में में केंद्रस्थ हो जाता था. मुझ तक पहुँच सकना भी भले लोगों के वश की बात न थी. मेरे चारों ओर अदम्य ऊर्जा और अपराजेय वासना से भरे लोग अपनी-अपनी आग से एक घेरा बना लेते थे. अपने आप को जलाकर ही उसमें घुसा जा सकता था.
यह भी पढ़ें : सरकारी प्रयासों का असर, यूपी के युवाओं को भाने लगी है ‘मछली’
कुछ देर बाद पिता लाठी लेकर चौराहे पर पहुँचे. सफ़ेद कुर्ते और सफ़ेद धोती को दोहरकर लुंगी की तरह पहने, हाथ में लाठी लिये पिता मुझे याद हैं और आज भी मुझे यक़ीन नहीं होता कि वह मुझे नाचने से रोकने के लिये लाठीचार्ज करने तक को प्रस्तुत थे; अलबत्ता यह ज़रूर समझ सकता हूँ कि मेरे इस तरह के सड़कछाप नृत्य से उनके आभिजात्य को चोट तो पहुँचती होगी.
यह भी पढ़ें : कोरोना वैक्सीन के दोनों डोज ले चुके लोगों के लिए हवाई सफर आसान
बहरहाल, मैं दुनिया की हर चीज़ को – तबले, ढोलक, ढपली, मेज, खंबे, स्कूल की बेंच, डालडा के डिब्बों, लोहे, लकड़ी, प्लास्टिक और दिशाओं को नगाड़े की तरह बजाता हुआ बड़ा होता रहा. एक बार तो पूरी रात मैं नगाड़े को इतने क़रीब बैठकर सुनता रहा कि मेरे कान में भीषण दर्द हो गया और कई डॉक्टरों के इलाज और महीने-भर का समय लगाने पर कुछ राहत मिली. दर्द के मारे मैं बहुत रोया, लेकिन उस बाजे के साथ मेरा प्यार रत्ती-भर भी कम न हुआ.
जब पढ़ना-लिखना शुरू हुआ तो महान लेखकों के नोट्स में इस आशय की पंक्ति पढ़कर कि बीथोवन का टेम्पेस्ट बज रहा था और वह आन्द्रे जीद के जर्नल्स पढ़ते हुए वसंत की पहली हवा का अनुभव कर रहे थे; मैं लज्जित ही होता रहा. कितने विलक्षण हैं वे लोग जो बीथोवन सुनते हुए आन्द्रे जीद के जर्नल्स में रम सकते हैं और वसंत की पहली हवा को भी बर्दाश्त कर लेते हैं. एक मैं हूँ जो संगीत के एक रेशे के ज़िंदा रहते एक शब्द भी नहीं पढ़ सकता. मैं तब संगीत-भर ही पढूंगा, सुनूंगा, देखूंगा और करूंगा – और अगर नगाड़ा बजेगा तो नाचूंगा भी.
व्योमेश शुक्ला कवि होने के साथ ही रंगकर्मी भी है. इनकी कविताओं का संग्रह प्रकाशित हो चुका है और देश विदेश में इन्होंने ‘राम की शक्ति पूजा’ का मंचन किया है.
[better-ads type=”banner” banner=”100781″ campaign=”none” count=”2″ columns=”1″ orderby=”rand” order=”ASC” align=”center” show-caption=”1″][/better-ads]