चूँ चूँ करती आई चिड़िया-हेमंत शर्मा

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आंगन की चिड़िया गौरैया किसे पसंद नही होगी। वरिष्ठ पत्रकार और TV 9 भारतवर्ष के न्यूज़ डायरेक्टर हेमंत शर्मा को भी इस नन्ही सी जान ने खासा प्रभावित किया है। आज विश्व गौरैया पर लुप्त हो रही गौरैया को उन्होंने अपनी स्मृतियों के खजाने से निकाल कर फेसबुक वाल पर सहेजा है। आप भी पढ़े अच्छा लगेगा।

गौरैया, अम्मा और आँगन। मेरे बचपन की ये यादें हैं। अम्मा नहीं रहीं। अब घरों में आँगन भी नहीं रहे। गौरैया भी मेरे घर आती नहीं। मेरी वे यादें छिन गईं, जिन्हें लेकर मैं बड़ा हुआ था। जीवन में चहकने और फुदकने के मायने भी हमने गौरैया से सीखे थे। प्रकृति से पहला नाता भी उसी के जरिए बना था। अब ऊँचे होते मकान, सिकुड़ते खेत, कटते पेड़, सूखते तालाब और फैलते मोबाइल टावरों ने प्यारी गौरैया को हमसे छीन लिया है। पिछले दिनों गौरैया को दिल्ली का ‘राज्य पक्षी’ घोषित किया गया। यह याद करना मुश्किल है कि गौरैया को आखिरी बार मैंने कब देखा था। पक्षी विज्ञानियों की मानें तो गौरैया विलुप्ति की ओर है। उसकी आबादी सिर्फ बीस फीसदी बची है।

चंचल, शोख और खुशमिजाज गौरैया का घोंसला घरों में शुभ माना जाता था। इसके नन्हे बच्चे की किलकारी घर की खुशी और संपन्नता का प्रतीक होती थी। हमारे घरों में छोटे बच्चों का पहला परिचय जिस पक्षी से होता था, वह गौरैया ही थी। उसके बाद कौवे से पहचान होती थी। सुनते हैं कि मेहमान के आने का संदेश देनेवाले काग पर भी अब खतरा है। कौवे भी गायब हो रहे हैं।

माँ अकसर इन गौरैयों के ही सहारे रोते बच्चों को चुप कराती थीं। सुबह की नींद टूटती थी गौरैयों की चहक के साथ। मैं अपने आँगन में हर रोज गौरैया को पकड़ने की असफल चेष्टा के साथ ही बड़ा हुआ हूँ। कोई पंद्रह सेंटीमीटर लंबी इस फुदकनेवाली चिड़िया को पूरी दुनिया में घरेलू चिड़िया मानते हैं। सामूहिकता में इसका भरोसा है। झुंड में रहती है। मनुष्यों की बस्ती के आस-पास घोंसला बनाती है। आज के सजावटी पेड़ों पर इसके घोंसले नहीं होते। इस लिहाज से यह घोर समाजवादी है। दाना चुगती है। साफ-सुथरी जगह रहती है। हाइजिन का खयाल रखती है। पक्षियों के जात-पाँत में इसे ब्राह्मण चिड़िया माना जाता है, क्योंकि शाकाहारी है। हर वातावरण में अपने को ढालनेवाली यह चिड़िया हमारे बिगड़ते पर्यावरण का दबाव नहीं झेल पा रही है। जीवन-शैली में आए बदलाव ने उसका जीवन मुहाल कर दिया है। लुप्त होती इस प्रजाति को ‘रेड लिस्ट’ यानी खतरे की सूची में डाला गया है।

गौरैया हमारी आधुनिकता की भेंट चढ़ती जा रही है। चालीस बरस पहले जब मेरे घर में छत से लटकनेवाला पहला पंखा आया। बड़ी खुशी हुई, लगा मौसम पर विजय मिली। उसी कमरे के रोशनदान में नन्ही गौरैया का हँसता-खेलता एक छोटा परिवार रहता था। आते-जाते एक रोज गौरैया पंखे से टकराकर कट गई। मासूम गौरैया घर आई आधुनिकता की पहली भेंट चढ़ी। पंखा तो हट नहीं सकता था, हमने इंतजाम किया कि गौरैया रोशनदान में न रहे। अब घरों से रोशनदान ही गायब हो गए हैं। मेरी माँ घर में ही अनाज धोती-सुखाती थीं। आँगन में दाने फटकती थीं। आँगन में चावल के टूटे दाने गौरैया के लिए डाले जाते थे। गौरैया का झुंड पौ फटते ही आता था। चूँ-चूँ का उनका सामूहिक संगीत घर में जीवन की ऊर्जा भरता था। आज घर में आँगन नहीं है। पैकेट बंद अनाज आता है। वातानुकूलन के चलते रोशनदान नहीं है, माइक्रोवेव उपकरण हैं। इसीलिए गौरैया रूठ गई हैं, अब वह नहीं आती।
गौरैया समझदार और संवेदनशील चिड़िया है। बच्चों से इसका अपनापन है। रसोई तक आकर चावल का दाना ले जाती है। घर में ही घोंसला बनाकर परिवार के साथ रहना चाहती है। मौसम की जानकार है। कवि घाघ और भड्डरी की मानें तो अगर गौरैया धूल स्नान करे तो समझिए भारी बरसात होनेवाली है। तो फिर आखिर क्यों रूठ गई गौरैया? घरों के आकार बदल गए हैं और जीवन-शैली बदल गई है। दोनों का असर गौरैया के जीवन पर पड़ा है।

 

तमाम लोकगीतों, लोककथाओं और आख्यानों में जिस पक्षी का सबसे ज्यादा वर्णन मिलता है—वह गौरैया है। महादेवी वर्मा की एक कहानी का नाम ही है—‘गौरैया’। उड़ती चिड़िया को पहचाननेवाले पक्षी विशेषज्ञ सालिम अली ने अपनी आत्मकथा का नाम रखा है ‘एक गौरैया का गिरना’। कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा ‘नीड़ का निर्माण फिर’ में गौरैया के हवाले से अपनी बात कही है। शेक्सपियर के नाटक ‘हेमलेट’ में भी एक पात्र अपनी बात कहने के लिए गौरैया को जरिया बनाता है। मशहूर शिकारी जिम कॉर्बेट कालाडूँगी के अपने घर पर हजारों गौरैयों के साथ रहते थे।
पूरे देश में बोली-भाषा, खान-पान, रस्मों-रिवाज बदलता है। पर गौरैया नहीं बदलती। हिंदी पट्टी की गौरैया तमिल और मलयालम में कुरूवी बन जाती है। तेलुगु में इसे पिच्यूका और कन्नड़ में गुव्वाच्ची कहते हैं। गुजराती में यह चकली और मराठी में चीमानी हो जाती है। गौरैया को पंजाबी में चिड़ी, बँगला में चराई पाखी और ओड़िया में घट चिरिया कहा जाता हैं। सिंधी में झिरकी, उर्दू में ‘चिड़िया’ और कश्मीरी में चेर नाम से इसे बुलाते हैं। गौरैया के नाम भले ही अलग-अलग हों लेकिन स्वभाव वही है।

जैव विविधता पर लगातार बढ़ते संकट से न सरकार अनजान है और न समाज। फिर कैसे बचे गौरैया? हम क्या करें? वह सिर्फ यादों में चहकती है। अतीत के झुरमुट से झाँकती है। क्यों यह समाज नन्ही गौरैया के लिए बेगाना है? हमें वापस इसे अपने आँगन में बुलाना होगा। नहीं तो हम आनेवाली पीढ़ी को कैसे बताएँगे कि गौरैया क्या थी। उसे नहीं सुना पाएँगे—‘चूँ-चूँ करती आई चिड़िया। दाल का दाना लाई चिड़िया।’

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