चीन के बॉयकाट से भारत पर आ सकती है ये बड़ी मुसीबत !
गलवान घाटी में 20 भारतीय सैनिकों की शहादत के बाद पूरे देश में चीन को लेकर खासा गुस्सा है। सैनिक बदला लें उससे पहले ही भारत के लोग चीन को आर्थिक चोट देना चाहते हैं। इसका परिणाम चीनी सामानों के बॉयकाट की मांग के रूप में सामने आ रहा है। पर सवाल उठता है कि क्या यह मुमकिन है? अगर हम सिर्फ दवाओं को ही लें तो इसके कच्चे माल के लिए हम चीन पर तकरीबन 80 परसेंट निर्भर है। दूसरे शब्दों में कहें तो अगर चीन भारत को कच्चे माल की सप्लाई बंद कर दे तो देश में दवाइयों का संकट पैदा हो जायेगा।
कच्चे माल के लिए चीन पर हैं निर्भर-
चीन से वैसै तो बहुत सी चीजें भारत आती हैं। इनमें दवाइयां भी प्रमुख है। दवाओं के मामले में भारत की पहचान दुनिया के तीसरे सबसे बड़े निर्यातक के रूप में है पर यह भी उतना ही सच है कि इसके लिए हमें चीन से आयात किये गये कच्चे माल पर निर्भर रहना पड़ता है।
भारत दवा निर्माण से जुड़ा 75 से 80 फीसदी कच्च माल यानि की एक्टिव फार्मा इंग्रेडिएंट्स (एपीआई) चीन से मंगाता है। चीन से आयात होने वाली दवाओं के कच्चे माल में बुखार में काम आने वाली दवा से लेकर कैंसर तक की दवाएं शामिल है।
पहले आयात करते हैं फिर निर्यात करते हैं-
अभी हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिस दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन को भारत से अपने यहां मंगाया है, उस दवा का कच्चा माल भी चीन से आयात किया जाता है। इसी तरह दूसरी निर्यात की जाने वाली दवा क्रोसीन का एपीआई पैरासिटामोल भी चीन से ही आता है। भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, भारत की दवा बनाने वाली कंपनियां तकरीबन 75 फ़ीसदी एपीआई चीन से मंगाती हैं।
कुछ दवाइयां ऐसी हैं, जिनके लिए भारत 80-90 फीसदी तक चीन पर निर्भर है। ऐसी स्थिति में अगर चीन निर्यात बंद कर दे तो भारत बुखार से लेकर एंटीबायोटिक और एंटी कैंसर जैसी जरूरी दवा तैयार नहीं कर पाएगा।
मिनिस्ट्री ऑफ कॉमर्स के आंकड़ों के मुताबिक पिछले चार सालो में चीन से आयात होने वाले फार्मास्यूटिकल प्रोडक्ट्स में 28 फीसदी की तेजी आई है। 2015-16 में भारत ने चीन से 947 करोड़ का आयात किया था जो 2019-20 में बढ़ कर 1150 करोड़ रुपये का हो गया।
चीन को प्रयासों में कमी का फायदा-
करीब तीन साल पहले 2017 में डोकलाम में जब चीन के साथ भारत का विवाद हुआ था उस समय भारतीय कंपनियां एक्टिव फार्मा इंग्रेडिएंट्स को अपने यहां ही तैयार करने को सक्रिय हुई थीं। पर यह अफसोस की बात है कि इसे अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका।
प्रयासों में कमी का फायदा चीन को मिला और भारत की दवा कंपनियां चीन पर निर्भर होती चली गयी। जिसका नतीजा है कि आज देश का फार्मा उद्योग चाह कर भी चीनी कच्चे माल का बहिष्कार नहीं कर सकता है।
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