ऐसे करें नवजात बच्चों की देखभाल, नहीं होगी कोई बीमारी
भारतीय महिलाएं अगर अपने नवजात शिशुओं की कंगारू के बच्चे की तरह देखभाल करें तो नवजात मृत्यु दर के आंकड़ों को कम किया जा सकता है। भारत में हर साल चार सप्ताह से भी कम उम्र के 7,50,000 नवजातों की मौत हो जाती है, जो किसी देश के आंकड़े से सबसे ज्यादा है।
इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स के उन्नत नवजात पुनर्जीवन कार्यक्रम के समन्वयक सोमशेखर निंबालकर ने इंडिया स्पेंड को एक ईमेल साक्षात्कार में बताया कि कंगारू अपने बच्चों के साथ नियमित रूप से त्वचा संपर्क बनाए रखते हैं।
अगर कोई मां इसी तरह का संपर्क अपने नवजात से बनाती है तो वैज्ञानिक रूप से इससे वह कई रोगों से बच सकते हैं। यह एक आसान, कम लागत वाला तरीका है, जो भारत में नवताज मृत्यु दर को घटाने में मददगार हो सकता है।
नवजात मृत्यु दर 1990 में प्रति एक हजार में 52 से घटकर 2013 में प्रति एक हजार में 28 हो गई, लेकिन यह गिरावट शिशु और पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर से कम रही है। गुजरात के करमसाद स्थित प्रमुखस्वामी मेडिकल कॉलेज में बाल-रोग विभाग के अध्यक्ष निंबालकर ने कहा कि स्थाई परिवर्तन सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों को बदलने से ही आ सकते हैं।
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भारत में नवजात मृत्यु दर (एनएमआर) में गिरावट आई है, लेकिन भारत में हर साल चार महीने से कम उम्र के 7,50,000 बच्चों की मौत होती है, यह संख्या किसी भी देश से सबसे ज्यादा है। उच्च एनएमआर दर के मुख्य कारण क्या हैं? इस पर उन्होंने कहा, “मुख्य कारण पूरे विश्व में एक जैसे हैं और यह समय पूर्व जन्म, संक्रमण और एसफिसिया हैं।”
राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और छत्तीसगढ़ भारत के उच्चतम नवजात मृत्यु दर वाले राज्य हैं। ये राज्य नवजात मृत्यु दर रोकने के लिए कोशिश क्यों नहीं करते? निंबालकर ने कहा, “हमारे पास ऐसे कोई विशेष दस्तावेज नहीं है, जो राज्य के आधार पर मृत्यु दर के कारण बताएं। हम हालांकि अनुमान लगा सकते हैं कि मानव संसाधनों की उपलब्धता में कमी व खराब सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं इसका कारण हो सकती हैं।
यहां चिकित्सा प्रणाली का भी महत्वपूर्ण स्थान है और राज्यों द्वारा नर्सों और चिकित्सकों का संसाधन स्तर अच्छा नहीं है। भारत भर में सरकारी क्षेत्र में वेतन प्रतिस्पर्धा नहीं है और इसलिए प्रतिभाशाली नर्स व चिकित्सक सरकारी नौकरियों में दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं।”
समयपूर्व जन्म जटिलताओं (43.7 प्रतिशत) और संक्रमण (20.8 प्रतिशत) भारत में नवजात मृत्यु दर के प्रमुख कारण हैं। इसके लिए जिम्मेदार कारक क्या हैं? उन्होंने कहा कि इसके सटीक कारण को स्पष्ट नहीं किया जा सकता है, लेकिन ऐसे बहुत से कारक हैं, जिसके कारण बच्चे समयपूर्व जन्म लेते हैं। किशोर गर्भावस्था, अधिक उम्र में गर्भधारण, गर्भधारण के अंतराल में कमी, मधुमेह, उच्च रक्तचाप और अन्य रोग समयपूर्व जन्म के कारकों में शामिल हैं।
उन्होंने कहा कि अगर अधिकांश भारतीय किशोरों के कुपोषित और रक्त की कमी से पीड़ित होने पर गौर किया जाए तो यह सटीक जोखिम कारकों में से एक हो सकता है। इसके अलावा कमजोर व गरीब महिलाओं पर काम का अधिक बोझ, घरेलू हिंसा और संक्रमण के कारण सफेद पानी की शिकायत आदि प्रचलित कारक माने जा सकते हैं।
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जननी सुरक्षा योजना और जननी शिशु सुरक्षा कार्य योजना (केंद्रीय सरकार के कार्यक्रम) जैसी योजनाओं से नवजात शिशु और शिशु स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ा है? उन्होंने कहा, “समग्र रूप से पूरे भारत में चिकित्सा देखरेख (अस्पताल) में प्रसव में वृद्धि हुई है और उम्मीद की जाती है कि मृत्यु दर के आंकड़े में सुधार होगा।
हालांकि अधिकांश अध्ययनों में सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों में देखभाल की गुणवत्ता में कमी देखी गई है और जब तक गुणवत्ता सुधार के लिए कदम नहीं उठाए जाते, मृत्यु दर में सुधार नहीं होगा।”
गुणवत्ता एक बार फिर से संसाधनों के प्रावधान (चिकित्सीय सुविधाओं व बेहतर चिकित्सक) पर निर्भर करती है और सुधार के लिए स्थानीय स्तर पर डेटा का उपयोग करना जरूरी है। भारत में नवजात के जीवन को बचाने के लिए कम लागत वाले तरीके क्या हैं, जिनके बारे में लोग अधिक नहीं जानते हैं?
उन्होंने कहा, “कंगारू मदर केयर (केएमसी) – जहां बच्चों को उनके माता-पिता के साथ त्वचा से त्वचा के संपर्क में रखा जाता है। पूरे भारत में इसके कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं। यह एक कम लागत वाला तरीका है, जो अगर पूरे देश में प्रसारित किया जाए तो यह नवजात मृत्यु दर पर एक बड़ा प्रभाव डाल सकता है।”
उन्होंने आगे बताया कि भारत में केएमसी विशेषज्ञता उपलब्ध है, लेकिन इसका उपयोग राज्य सरकारों द्वारा नहीं किया जाता है। हालांकि, कोई भी नहीं जानता कि इसका उपयोग सार्वजनिक या निजी स्वास्थ्य संस्थानों में कितना किया जा रहा है।
भारत में अच्छी गुणवत्ता के स्वास्थ्य अनुसंधान करने की क्या चुनौतियां हैं? इस पर उन्होंने कहा, “गुणवत्ता वाले आंकड़ों की अनुपलब्धता, क्योंकि शोधार्थी पर आंकड़ों को तैयार करने का दबाव होता है। डाटा के एक बार खराब होने पर कोई इसमें हस्तक्षेप नहीं करता है। शोधकर्ताओं के लिए धन उपलब्धता में कमी और गुणवत्ता वाले शोधकर्ताओं की कमी भी एक मुद्दा है।”
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