25 जून 1975 : आपातकाल एक ऐसा दौर, जिसे याद कर सहम जाते हैं लोग

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आपातकाल के दौरान जेल गए लोगों की पीढ़ी के गिनती के लोग ही बचे होंगे, मगर उनकी अगली पीढ़ी उस दौर को याद करके सिहर जाती है, डर से आक्रांत हो जाती है और उस दौर को याद भी नहीं करना चाहती। मुझे भी वह दौर याद करके घुटन सी महसूस होने लगती है, क्योंकि मेरे पिता दिवंगत डॉ. पुष्कर नारायण पौराणिक भी 19 माह तक मध्यप्रदेश की छतरपुर जेल में रहे थे।

आपातकाल में वैसे तो ज्यादातर राजनीतिक दलों से या कांग्रेस का विरोध करने वालों को जेलों में डाल दिया गया था, मगर मेरे पिताजी को सरकारी अस्पताल में आयुर्वेदिक चिकित्सक होने के बावजूद गिरफ्तार कर लिया गया। इसकी वजह उनकी बेवाकी रही। उन्होंने कभी किसी नेता के आगे झुकना पसंद नहीं किया और हर जरूरतमंद के लिए किसी से भी भिड़ने में हिचके भी नहीं। वे चिकित्सक के तौर पर कम, कर्मचारी नेता और सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर ज्यादा पहचाने जाते थे।

देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की एक घोषणा के साथ 25-26 जून, 1977 की दरम्यानी रात से ही आपातकाल लगा दिया गया। इसके बाद कांग्रेस और सरकार विरोधियों की गिरफ्तारी का दौर शुरू हो गया। पिताजी सरकारी चिकित्सक और हर किसी की मदद के लिए हर वक्त तैयार रहने की फितरत के कारण उनके पुलिस और प्रशासन में चाहने वालों की कमी नहीं थी। लिहाजा, एक पुलिस अधिकारी ने उन्हें बताया कि गिरफ्तार किए जाने वालों की सूची में उनका भी नाम है, माफीनामा दे दें तो वे उससे बच सकते हैं।

मगर पिताजी ने माफीनामा देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वे किसी इंसान से माफी नहीं मांगते। फिर क्या था, उनकी गिरफ्तारी 23 जुलाई, 1975 को उस वक्त हुई, जब वे अपनी ड्यूटी पर जा रहे थे।

मेरी मां दिवंगता माधवी देवी पौराणिक सरकारी स्कूल में निम्न श्रेणी शिक्षिका हुआ करती थी। हम तीन भाई और दो बहन थे। पिताजी की गिरफ्तारी की खबर तब मिली, जब उनकी साइकिल देने एक व्यक्ति घर आया। हर किसी का एक-दूसरे से यही सवाल था कि क्या हो गया? बाबूजी को जेल क्यों ले जाया गया? कब लौटेंगे?

आलम यह था कि पिताजी की गिरफ्तारी के बाद घर से निकलने पर हर किसी की नजर हम लोगों पर हुआ करती थी, कई लोग तो बात तक करने से डरा करते थे। उस दौर में हमारे मकान मालिक रामचरण असाटी ने हमें ढाढस बंधाया और कहा कि किराए की चिंता मत करना, जब डॉक्टर साहब छूटकर आ जाएंगे, तब उनसे किराया ले लेंगे।

लगभग 19 माह तक पिता जी जेल में रहे, इस दौरान कई बड़े नेता बीमारी, माफीनामा भरकर छूट कर आते रहे, हमारा परिवार भी इसी उम्मीद में रहता था कि पिताजी एक दिन जरूर जेल से छूटकर आ जाएंगे। घर में खाने के लाले पड़ने की स्थिति थी, क्योंकि कमाने वाली सिर्फ मां थी और हम पांच भाई बहन छोटे और पढ़ने वाले थे। पिताजी के रहते शायद ही कभी कोई फरमाइश पूरी न हुई हो। अब वह सब बंद था, दुकानों के सामने से गुजरते वक्त मन ललचाता, मगर मन को मारकर रह जाते कि बाबूजी होते तो ये होता, बाबूजी होते तो ऐसा करते। फिर भी मां ने किसी तरह 19 माह का वक्त गुजारा।

हमारे परिवार में मुझसे बड़े दो भाई कुलदीप (वर्तमान में टीडीएम), प्रदीप (आयुर्वेदिक चिकित्सक) हैं और दो छोटी बहनें ओमश्री और जयश्री के लिए आपातकाल का दौर आज भी रुला जाता है, मगर मां ने कभी हार नहीं स्वीकारी। वे नियमित रूप से 10 से 12 घंटे भगवान की पूजा किया करती और हमेशा यही कामना करती कि सब सकुशल रहें और सौभाग्यवती रहे। ऐसा इसलिए, क्योंकि उस दौरान कई मीसाबंदियों की मौत तक की खबरें आ चुकी थीं। उन्होंने न तो कभी पिताजी से माफीनामा भरने को कहा और न ही खुद तैयार हुई।

यह ऐसा समय था, जब घर में सब्जी, दूध आना तक मुश्किल हो गया था। मां अचार में रोटी खा लेती तो हम लोगों के लिए रोटी और दाल का इंतजाम हो जाता। सब्जी तो कई माह तक खाने को नहीं मिल पाई, क्योंकि मां की पगार इतनी नहीं थी उससे सारी जरूरतें पूरी हो जाएं। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि छोटी बहन जयश्री से शिक्षक ने पूछा कि इस मौसम में कौन-कौन सी सब्जियां आ रही हैं, तो वह सहम गई और जवाब दिया कि ‘सर हमारे यहां कई माह से सब्जी नहीं बनी है।’

आपातकाल के दौर में भी कई लोग मदद के लिए तैयार रहते थे, मगर उन्हें इस बात का डर सताए रहता था कि कहीं किसी को पता चल गया तो उनका बुरा हाल हो जाएगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि खुफिया विभाग के कर्मचारी आए दिन पूछताछ करने घर जो आते रहते थे। वहीं जेल में मुलाकात माह में एक बार ही हो पाया करती थी, मगर कुछ अधिकारी ऐसे थे, जो हम लोगों को देखकर रहम कर जाते और एक पखवाड़े में भी मुलाकात करा दिया करते थे।

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पिताजी 29 जनवरी, 1977 को जेल से रिहा हो गए, मगर हम लोगों को खबर तब मिली, जब वे घर पहुंचे। उनका अंदाज बदला हुआ था, वे संत की तरह नजर आने लगे थे, क्योंकि कंधे तक लहराते बाल और पेट तक बढ़ी दाढ़ी पूरी तरह सफेद थी, मगर उनका बातचीत का अंदाज नहीं बदला था। घर में वे जिस कमरे में रहे, उसमें सिर्फ एक तस्वीर हुआ करती थी और वह थी जय प्रकाश नारायण की।

आपातकाल खत्म होने के बाद कांग्रेस विरोधी दलों से जुड़े कार्यकर्ता नेता बन गए, जबकि पिता जी ने फिर नौकरी ज्वाइन कर ली। उनकी जिंदगी पहले जैसी चलने लगी, उन्हें चुनाव लड़ने के लिए भी कहा गया, मगर उनका जवाब यही होता था कि क्या इसके लिए जेल गए थे। उनके मन में कभी राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं रही। हां, उम्मीदवारों के लिए जरूर प्रचार किया करते थे, क्योंकि कर्मचारियों में गहरी पैठ थी।

आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी की सरकार बनी, तमाम नेताओं ने अपने-अपने त्याग का हवाला देकर तमाम पद हासिल कर लिए, मगर पिताजी ने इसके लिए कोई प्रयास नहीं किया, मगर जनता पार्टी की सरकार जाने और कांग्रेस की सरकार बनने पर उनकी प्रताड़ना का दौर शुरू हो गया और उनका छतरपुर से दमोह तबादला कर दिया गया, और सेवानिवृत्त होने तक फिर छतरपुर में पदस्थ नहीं हो पाए।

आपातकाल ने भले ही कई लोगों के भाग्य को बदलने का काम किया हो, उन्हें कार्यकर्ता से नेता बना दिया हो, मगर पिताजी पूरी जिंदगी डॉक्टर के तौर पर ही पहचाने गए। जब तक जीवित रहे, तब तक जेल के किस्से सुनाते रहे, उन्हें कभी भी इस बात का मलाल नहीं रहा कि वे जेल गए और उन्हें उसके बदले कुछ भी नहीं मिला।

आज पिताजी नहीं हैं, मगर आपातकाल की तारीख करीब आते ही पूरे परिवार का मन विचलित हो जाता है, क्योंकि हमारे खुशहाल परिवार की खुशहाली और हमारा बचपन आपातकाल ने ही छीना था।

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