उपचुनाव : कैराना में किसकी होगी घर वापसी और किसका होगा पलायन ?

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मार्तंड सिंह

उत्तर प्रदेश(Uttar Pradesh) में एक बार फिर से चुनावी सुगबुगाहट शुरू हो गई है। फिर से एक बार जातियां समीकरणों की समीक्षाओं का दौर पार्टियों के अंदर शुरू हो चुका है। एक बार फिर से रंगबिरंगी, जाली दर और तरह तरह की टोपियां जो सिर्फ चुनाव के समय ही निकलती है अब बाहर आने की तयारी में हैं। फिर से एक बार प्रदेश में उपचुनाव होना है। लोकसभा की कैराना सीट और विधानसभा की नूरपुर सीट पर उपचुनाव होने हैं।

इनकी मृत्यु के बाद खाली हुई थीं सीटें

बता दें कि कैराना की लोकसभा की सीट भाजपा से सांसद हुकुम की मृत्यु के बाद खाली हुई थी जबकि नूरपुर विधानसभा की सीट भाजपा से विधायक रहे लोकेन्द्र सिंह की रोड एक्सीडेंट में मृत्यु के बाद खाली हुई। 28 मई को होने वाले इस उपचुनाव ने एक बार फिर से राजनितिक हलचल को बढ़ा दिया है। ये उपचुनाव सरकार में बैठी बीजेपी और विपक्षी दोनों पार्टियों के लिए कई मायनो में अहम् साबित होने वाला है। राजनितिक वर्चस्व के साथ साथ दोस्ती की कसौटी की भी इस चुनाव में परख होगी।

फूलपुर और गोरखपुर में भाजपा को मिली करारी हार

इससे पहले हुए गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में सपा और बसपा की दोस्ती ने भाजपा को चारो खाने चित कर दिया था। मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री का संसदीय क्षेत्र होने के बाद भी भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था तो वहीं इस चुनाव ने 2019 के लिए कई विकल्प भी दे दिये। पर अगर हम बात कैराना और नूरपुर की करें तो यहाँ की स्थिति और समीकरण दोनों गोरखपुर व फूलपुर से अलग हैं। जहां गोरखपुर और फूलपुर प्रदेश के पूर्वी हिस्से से आते हैं वहीं नूरपुर और कैराना प्रदेश का पश्चिमी हिस्सा है। जहां एक तरफ पूर्वांचल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरण अलग है वहीं यहां की सामाजिक परिस्थिति भी एक दूसरे से भिन्न है। जहां पूर्वांचल के क्षेत्रों में चुनाव में जातीय समीकरणों का ज्यादा महत्व होता है वहीं पश्चिमी क्षेत्रों में जातीय समीकरण की जगह धार्मिक समीकरणों का महत्व बढ़ जाता है।

कैराना क्यों है अहम ?

पश्चिमी उत्तर प्रदेश हमेशा से चुनावों के दौरान अपना एक विशिष्ट महत्वा दिखता रहा है, चुनाव के दौरान यहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण चरम पर होता है। सपा सरकार के दौरान 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए दंगे ने इस ध्रुवीकरण को और धार दी थी। 2017 के विधान सभा चुनाव के पहले भाजपा के हुकुम सिंह ने कैराना से हिन्दुओं के पलायन को बड़ा मुद्दा बनाकर ध्रुवीकरण की कोशिश की थी और वो इसमें सफल भी रहे थे। विधानसभा चुनाव के दौरान रैलियों और सभाओं में भी ‘कैराना का कलंक’ गूंजा करता था। सभाओ में ‘ कैराना को कश्मीर नहीं बनाने देंगे’ जैसे नारे गूंजा करते थे। इन जुमलों के जरिये बीजेपी ने जातियों के खांचे में बंटे हिन्दुओं को एक सांचे में ढालने की कोशिश की थी, इससे चुनाव में पार्टी को भरपूर फायदा भी मिला था। ऐसा माहौल बना की हिंदुत्व के अजेंडे के आगे सारे मुद्दे औंधे मुंह जा गिरे थे।

सपा-बसपा के लिए महत्वपूर्ण है चुनाव

इस बार का उपचुनाव ये भी तय करेगा की आखिर इन क्षेत्रो में हिंदुत्व के अजेंडे में अभी कितनी जान बाकी है। साथ ही साथ ये भी तय होगा की 2019 के लिए क्या इस एजेंडे का असर पहले की ही तरह होगा या नहीं। सपा बसपा गठबंधन के लिए भी ये उपचुनाव महत्वपूर्ण होगा। राज्यसभा चुनाव के दौरान बसपा सुप्रीमो मायावती पहले ही कह चुकी हैं की भाजपा चीटिंग करके सपा और बसपा की दोस्ती तोड़ना चाहती है पर ये दोस्ती जारी रहेगी। हालंकि अभी तक उपचुनाव को लेकर सपा और बसपा ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं और ना ही अभी तक एक साथ चुनाव लड़ने की ही बात कही है। ऐसे में ये चुनाव इस दोस्ती की दिशा भी तय करेगा।

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कैराना में वोटों का गणित

अगर कैराना लोकसभा सीट की अगर बात करें तो ये पांच विधानसभा सीटों को मिला कर बना है। इस लोकसभा सीट पर लगभग 17 लाख मतदाता हैं। जातीय समीकरणों की अगर बात की जाये तो 3 लाख के लगभग मुस्लिम वोटर हैं जबकि साढ़े चार लाख ओबीसी और डेढ़ लाख जाटव वोट भी हैं। जाटव मूलतः बहुजन समाज पार्टी के वोटर माने जाते हैं। कैराना में सपा के मूल वोट यादव मत कम हैं, लेकिन मुसलमानों की आबादी बड़ी तादाद में है, जो सपा का ही वोटबैंक माना जाता है। जबकि इसी सीट पर दलित वोट काफी अहम हैं।

चुनाव में आरएलडी की अहम भूमिका

यूपी के पिछले उपचुनाव की तरह अगर बसपा का वोट सपा की झोली में जाता है तो बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। जबकि बीजेपी एक बार अपने मतों को एकजुट करके 2014 जैसा इतिहास दोहराने की कोशिश करेगी। कैराना लोकसभा सीट 1962 में अस्तित्व में आई थी। मुस्लिम बहुल सीट होने के बाद भी अभी तक सिर्फ चार बार ही मुस्लिम सांसद यहां से चुने गए है। इस लोकसभा सीट पर राष्ट्रीय लोकदल को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। 1999 और 2004 में कैराना में आरएलडी के ही सांसद थे, ऐसे में आरएलडी किसी पार्टी के साथ गठबंधन कर लेती है तो बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं।

कौन मारेगा बाजी ?

खैर, चुनावी बिगुल बज चुका है, राजनितिक गलियारों में सरगर्मियां भी बढ़ चुकीं हैं अपने-अपने तरकश के तीरों को परखने का वक़्त भी पार्टियों को मिल गया है। कैराना और नूरपुर दोनों ही सीटें भाजपा के जनप्रतनिधियों के मृत्यु के बाद खाली हुई हैं ऐसे में भाजपा को यहां पर सहानुभूति मिलने के ज्यादा आसार है। पर जनाब ये लोकतंत्र है यहां नतीजा जनता के वोट से तय होता है। ऐसे में ये देखना भी दिलचस्प होगा कि आखिर इस उपचुनाव में ‘किसकी होगी घर वापसी और किसका होगा पलायन।’

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