भूतिया नहीं,…इस वजह से वीरान होता गांव!

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रोजगार के मौकों की कमी, शिक्षा की समुचित व्यवस्था का अभाव और खेती में आने वाली मुश्किलों ने हमेशा से पहाड़ के लोगों को अपनी जड़ों को छोड़ने के लिए मजबूर किया है। उत्तराखंड में पलायन अब इस हद तक पहुंच गया है कि यहां के गांव तेजी से वीरान होते जा रहे हैं। विधानसभा में एक सवाल के जवाब में सरकार ने गत वर्ष माना कि पहाड़ों में गैर आबाद गांवों की संख्या 1,059 पहुंच गई है। गैर आबाद गांवों का मतलब है ऐसे गांव जहां अब कोई भी नहीं बचा। हालांकि सरकार का कहना है कि इन गांवों को फिर बसाने की कोशिशें हो रही हैं।

खंडहर में तब्दील होते गांव

कोटद्वार का सिरसल गांव! कभी लोगों की चहल-पहल से भरा यह गांव अब वीरान पड़ा है। कुछ पुराने लोग बताते हैं कि पहले इस छोटे से गांव में कई परिवार रहते थे, लेकिन धीरे-धीरे सब पलायन कर गए। इस गांव में आज एक भी इंसान नहीं बचा है। बचा है तो सिर्फ उनके खाली मकान और वीरान सड़कें।

सुविधाओं का अभाव

दरअसल, गांवों में विकास न के बराबर है। आधुनिक सुविधाएं तो दूर इन गांवों में मूलभूत सुविधाओं का भी अभाव है। सिरसुल गांव आजादी के इतने वर्ष बाद भी शिक्षा, सड़क और पानी से वंचित है, जो इस गांव के पलायन का सबसे बड़ा कारण बना है।

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ग्रामीणों के मुताबिक सन 1960 में जिन लोगों ने सिरसल ग्रामसभा के प्राइमरी स्कूल से पांचवी पास किया, वह स्कूल 56 साल बाद यानी आज भी पांचवी तक ही है। क्लास से लेकर स्कूल भवन तक एक इंच भी अंतर नहीं आया। ये स्कूल विकास की गति को बखूबी दर्शाता है।

आधुनिकता की दौड़ 

2011 की जनगणना के प्रारंभिक अनुमान गांव की पलायन की स्थिति को बयां करते हैं। पौड़ी जिले के दुग्गडा ब्लॉक का सिरसुल गांव जो कभी धनाढ्य लोगों का गांव हुआ करता था, वहां आज सिर्फ खंडहर बचा है। आस-पास गांव के स्थानीय लोग बताते हैं कि 15 से 20 साल पहले तक इस गांव में करीब 12 परिवार रहा करते थे। बाद में आधुनिकता की दौड़ में ये गांव पिछड़ता गया और परिवार की जरूरतों देखते हुए नई पीढ़ी लगभग गांव को जैसे छोड़ ही चुकी है।

राज्य का गठन हुआ, पलायन बढ़ा

उत्तर प्रदेश से वर्ष 2000 में उत्तराखंड अलग राज्य बनने के बाद गांवों से पलायन में और तेजी आई है। 2001 और 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर नजर डालें तो राज्य के 75 प्रतिशत गांव पलायन की वजह से खाली होने की कगार पर पहुंच चुके हैं।

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जनसंख्या के आंकड़े दर्शाते हैं कि 2001 से 2011 के बीच उत्तराखंड की आबादी 19.17 प्रतिशत बढ़ी है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में यह वृद्धि सिर्फ 11.34 प्रतिशत है, जबकि शहरी क्षेत्रों में 41.86 प्रतिशत रही। यही स्थिति रही तो 2021 तक मैदानी विकासखंडों और शहरी क्षेत्रों की आबादी में अप्रत्याशित बढ़ोतरी होगी और पहाड़ों के गांव लगभग खाली हो जाएंगे।

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