बनारस के पत्रकार ने सुनाई दास्तां, कोरोना काल में ‘मौत’ के वो 14 दिन !

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जीवन और मौत के बीच कोरोना वायरस से करीब 14 दिनों तक जंग लड़ने के बाद हम घर लौट आए। शुरुआत में कोविड-19 ने हमें जकड़ा तो लगा कि यह फ्लू जैसी मामूली बीमारी है। लेकिन बाद में जो लक्षण नजर आए वह काफी गंभीर थे। वैसे भी जब किसी इंसान को यह पता चल जाता है कि वह कोविड-19 से घिर गया है गया है, तो आधी जान यूं ही हलक में अटक जाती है।

17 जुलाई को अचानक मुझे हल्का बुखार हुआ। ढेरों चिकित्सक मित्रों से परामर्श लिया। सबने इसे मामूली बीमारी बताकर टालने की कोशिश की। लेकिन मैं इस गंभीर बीमारी की तासीर को समझता था। तीन दिनों तक लगातार कमिश्नर, कलेक्टर, सीएमओ से लेकर जिले के ढेरों आला अफसरों को अनगिनत फोन करता रहा। किसी का जवाब नहीं मिला। सरकार को ट्वीट किया। बाद में गृह मंत्रालय से मेरे लिए गाइडलाइन जारी हुई। तब अफसरों के फोन आने शुरू हुए। इसके बाद लंबी जद्दोजहद के बाद जांच हुई और घोषित किया गया कि मैं कोरोना की जद में हूं।

जिस समय मैं एंबुलेंस है अस्पताल के लिए निकला सैकड़ों लोग मुझे उत्सुक देख रहे थे, जैसे कोई मैं बड़ा गुनहगार हूं। कुछ वीडियो बनाने में मशगूल थे तो कोई फोटो खींच रहा था। साहस देने के लिए एक शख्स भी सामने नहीं आया। उस समय मेरी सांस उखड़ रही थी। पहले चौकाघाट आयुर्वेद मेडिकल कॉलेज में भर्ती हुआ और हालत बिगड़ने पर रात 2:00 के बाद में नदेसर के निजी अस्पताल होटल गुप्ता इन में। दोनों अस्पतालों की अपनी राम कहानी है। उसे हम बाद में सुनाएंगे।

प्राइवेट अस्पताल में करीब 14 दिन तक जीवन और मौत से जूझता रहा। 24 जुलाई को मेरी सेहत तेजी से बिगड़नी शुरू हुई और अगले दिन 25 जुलाई को मैं कोमा में चला गया। लेवल-तीन वाली स्थिति थी। डॉक्टरों ने उम्मीद भी छोड़ दी थी, क्योंकि ऑक्सीजन लेवल 60 पर पहुंच गया था। जब बचने की उम्मीद नहीं थी तो अस्पताल वालों ने मेरा सामान बंधवा दिया था। शहर के किसी ऐसे अस्पताल की तलाश की जा रही थी जहां मुझे ठेला जा सके और अस्पताल प्रबंधन मेरी मौत का कलंक अपने सिर पर लेने से बच जाए।

बस एक उम्मीद थी जिंदा बच पाने की। इसी उम्मीद के सहारे अस्पताल के चिकित्सक डॉ राममूर्ति सिंह की टीम ने मेरा इलाज शुरू किया। लगातार 24 घंटे तक एक चिकित्सक के पर्वेक्षण में रखा। डॉक्टर सारस्वत राठौर ने मुझे बचाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। तमाम मशीनें और औजार लगाए गए। वो खाने-पीने की सुध तक भूल गए। तीसरे दिन उम्मीद की किरण लौटी। इसके बाद डॉक्टर सारस्वत अपने घर लौटे। तब भी अस्पताल के डॉक्टरों को पुख्ता भरोसा नहीं था कि हम सचमुच कोविड-19 से जंग जीत लेंगे?

प्राइवेट अस्पताल के जिस कमरे में मुझे रखा गया था, “किसी को भी वहां आने और मुझसे मिलने की इजाज़त नहीं थी। वहां मुझे बहुत अकेला महसूस होता था। जेल के कैदी की तरह। मुंह पर 24 घंटे ऑक्सीजन का मास्क लगा रहा। दो-तीन दिन तक तो मैं बिस्तर से उठा तक नहीं। यहां तक की टॉयलेट के लिए भी नहीं जा सका। जब मेरी बेडशीट बदलनी होती थी तो मैं दूसरी करवट हो जाता था। कोरोनावायरस ने शरीर का सारा ताकत निचोड़ दिया था।

“मुझे सांस लेने में कई बार दिक्क़त होती तो भी मुझे अटेंडेंट का इंतज़ार करना पड़ता। मुझे उसी हालत में कुछ देर रहना पड़ता ताकि जो भी मुझे अटेंड करने आ रहा है वो ख़ुद के सारे सुरक्षा आवरण पहन ले। गाहे-बगाहे मेरे परिवार वाले मेरे साथ फ़ोन पर बात करते रहते ताकि मैं शांत बना रहूं। दरअसल मुझे यकीन होने लगा था कि अब घर लौट पाना मुश्किल है। इसके बावजूद मैं डरा नहीं। मैंने मान लिया था की हर चीज के लिए मैं तैयार हूं। चाहे जिंदा रहूं या ना रहूं। आखिरी दिन तक मेरा हौसला नहीं डिगा। शायद यही हौसला मेरी ताकत बना और हम कोविड-19 के खिलाफ जंग जीत पाए। दरअसल कोविड-19 के खिलाफ मैं इसलिए हर सांस के लिए जूझ रहा था कि ये लड़ाई मेरे मेरी खुद की नहीं थी। मुझसे अनगिनत असहाय और बेबस लोगों की उम्मीदें जुड़ी हुई थी जिनके लिए मेरी कलम आवाज ताकत बनती रही है।

मैं कभी उस वक्त को नहीं भूल पाता जब अस्पताल से बाहर निकला। ताज़ी और ठंडी हवाएं आज भी मुझे वह सुखद एहसास कराती हैं। इतना जरूर है कि अस्पताल के उन कुछ अकेले गुज़ारे हफ़्तों ने मेरी ज़िंदगी को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया। मुझे यह बात अच्छी तरह समझ में आ गया कि हर छोटी से छोटी चीज़ का अपना महत्व है।

कोविड-19 से जंग हम भले जीत गए, लेकिन नौकरशाही के खेल ने सीने पर जो मूंग दली है, उसका जख्म कब मिटेगा यह का पाना कठिन है?अस्पताल में जितने दिन रहे सरकारी मशीनरी ने अपराधियों की तरह परेशान किया। फोन दर फोन करके मानसिक यातनाएं दी। कुछ ने गालियां तक सुनाई कि तुम लोगों के कोरोना की वजह से हम लोगों परेशान हैं। शायद कोबिट से भी खतरनाक त्रासदी है नौकरशाही का यह खेल। पुलिस वालों के फोन तो ऐसे घनघनाते रहे जैसे हम कोई कुख्यात और फरार मुलजिम हों।

आप सभी से विनम्र आग्रह है कि घर में रहें, सुरक्षित और बेहद सावधान रहें। कोरोना ऐसा रक्तबीज है, जो शैतान की तरह किसी भी समय आपके शरीर में घुस सकता है।

[bs-quote quote=”यह लेख उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है। पत्रकार के निजी अनुभवों के आधार पर ये स्तंभ लिखा है।” style=”style-13″ align=”center” author_name=”विजय विनीत” author_job=”वरिष्ठ पत्रकार, वाराणसी ” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/08/patrakar.jpg”][/bs-quote]

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