भगत सिंह को भारत में आज़ादी के महानायक के रूप में देखा जाता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि पाकिस्तान में भी उन्हें उतना ही सम्मान दिया जाता है? लाहौर का शादमान चौक, जहां भगत सिंह को फांसी दी गई थी, सालों से “शहीद भगत सिंह चौक” नामकरण की मांग का केंद्र रहा है. लेकिन इस पर विवाद क्यों है? और पाकिस्तान में भगत सिंह के लिए इतनी दिलचस्पी क्यों बनी हुई है?
लायलपुर से लाहौर तक का सफर
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को अविभाजित भारत के लायलपुर (अब फैसलाबाद, पाकिस्तान) के बंगा गांव में हुआ था. उन्होंने लाहौर के डीएवी स्कूल और नेशनल कॉलेज में पढ़ाई की और यहीं से वे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हुए. उनका लाहौर से गहरा नाता था, जहां उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कई कदम उठाए.
क्रांतिकारी कदम जिसने उन्हें पाकिस्तान में भी चर्चित बना दिया
1928 में, भगत सिंह ने ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जेम्स ए स्कॉट की हत्या की योजना बनाई, लेकिन गलती से जॉन सांडर्स को गोली मार दी. इसके बाद वे लाहौर में अलग-अलग जगह छिपते रहे.
लल्लनटॉप की रिपोर्ट के अनुसार, सेन्ट्रल असेंबली में बम फेंकने की घटना में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त गिरफ्तार हो गए. अदालत में उनका मुकदमा पक्षपाती तरीके से चलाया गया, जिसके खिलाफ जिन्ना ने विरोध किया. उन्होंने भगत सिंह की भूख हड़ताल को एक क्रांतिकारी कदम बताया और कहा,
“जो व्यक्ति भूख हड़ताल करता है, वह आम अपराधी नहीं हो सकता”
हालांकि, ब्रिटिश सरकार ने विशेष ऑर्डिनेंस के तहत उन्हें पेशी के बिना ही फांसी की सजा सुना दी.
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पाकिस्तान में ‘शहीद भगत सिंह चौक’ का संघर्ष
23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर के शादमान चौक पर फांसी दी गई थी. हर साल इस जगह पर लोग श्रद्धांजलि देने आते हैं. 2012 में इसे “शहीद भगत सिंह चौक” नाम देने की मांग उठी, लेकिन पाकिस्तान में कट्टरपंथी संगठनों के विरोध के कारण यह संभव नहीं हुआ.
हालांकि, पाकिस्तान की सिविल सोसायटी और बुद्धिजीवी वर्ग उनको सम्मान दिलाने के लिए लगातार संघर्ष कर रहा है. वर्षों की कानूनी लड़ाई के बाद शादमान चौक का नाम अब ‘भगत सिंह चौक’ रखा गया है, लेकिन कट्टरपंथी संगठन जमात-उद-दावा इसका कड़ा विरोध कर रहा है.
भगत सिंह को निर्दोष साबित करने की लड़ाई
लाहौर में भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की है, जिसमें सांडर्स हत्याकांड में भगत सिंह को निर्दोष घोषित करने और उन्हें पाकिस्तान का राष्ट्रीय सम्मान देने की मांग की गई है. याचिका में तर्क दिया गया है कि भगत सिंह ने भारत-पाकिस्तान की संयुक्त आज़ादी के लिए संघर्ष किया था, न कि किसी विशेष धर्म या समुदाय के लिए.
हुसैनीवाला: भारत-पाकिस्तान की सीमाओं में बंटा इतिहास
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के शवों को रातों-रात लाहौर से हुसैनीवाला (अब भारत में) लाया गया और उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया. 1947 में बंटवारे के बाद हुसैनीवाला पाकिस्तान के हिस्से में चला गया, लेकिन 1961 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 12 गांवों के बदले इस ऐतिहासिक स्थल को भारत में शामिल कर लिया. आज यह राष्ट्रीय शहीदी स्मारक के रूप में स्थापित है.
पाकिस्तान में क्यों हो रहा है भगत सिंह का सम्मान?
पाकिस्तान में भगत सिंह को लेकर दो ध्रुव बन चुके हैं.एक तरफ सिविल सोसायटी और शिक्षाविद जो उन्हें भारत-पाकिस्तान की साझा आज़ादी का नायक मानते हैं और दूसरी तरफ कट्टरपंथी गुट, जो उन्हें सम्मान देने का विरोध करते हैं.