आज का दिन यानी 11 मार्च, भारतीय इतिहास में एक ऐसा दिन है, जिसे भुलाया नहीं जाना चाहिए. ठीक आज ही के दिन यानि 11 मार्च को 1689 में संभाजी महाराज की नृशंस हत्या कर दी गई थी. वे सिर्फ एक वीर योद्धा ही नहीं, बल्कि छत्रपति शिवाजी महाराज के सच्चे उत्तराधिकारी और हिंदवी स्वराज्य के सबसे प्रबल रक्षक थे.
आजकल देशभर में औरंगजेब से जुड़ी ऐतिहासिक बहस गर्म है. महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में औरंगजेब की विरासत को लेकर अलग-अलग मत देखने को मिल रहे हैं. कुछ लोग उसे एक क्रूर शासक मानते हैं, तो कुछ उसे एक नायक की तरह देखने की कोशिश करते हैं. दूसरी ओर क्या हम उन अनगिनत बलिदानों को भुला सकते हैं जो औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता के शिकार हुए ? और उन्हीं बलिदानों में सबसे बड़ा नाम है- संभाजी महाराज.
शिवाजी के योग्य उत्तराधिकारी
संभाजी महाराज का जन्म 14 मई 1657 को हुआ था. वे बचपन से ही वीरता, शौर्य और राजनीतिक समझ के प्रतीक थे. शिवाजी महाराज ने उन्हें बेहतरीन शिक्षा दी थी. संभाजी संस्कृत, मराठी, फारसी और कई अन्य भाषाओं के ज्ञानी थे. वे सिर्फ तलवार चलाने वाले योद्धा नहीं, बल्कि एक कुशल प्रशासक और रणनीतिकार भी थे.
जब 1680 में शिवाजी महाराज का निधन हुआ, तब मराठा साम्राज्य के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती थी. औरंगजेब उत्तर भारत से दक्षिण की ओर बढ़ रहा था. मुगल साम्राज्य पूरी ताकत से मराठों को खत्म करने के लिए आगे बढ़ रहा था. ऐसे समय में संभाजी महाराज ने हिंदवी स्वराज्य की बागडोर संभाली और अपने पिता के सपनों की रक्षा की.
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एक ऐतिहासिक टकराव
संभाजी महाराज और औरंगजेब के बीच टकराव केवल सत्ता और भूभाग का नहीं था, बल्कि यह दो विचारधाराओं की लड़ाई थी. एक तरफ हिंदवी स्वराज्य की स्वतंत्रता थी, जो धार्मिक सहिष्णुता और स्वाभिमान पर आधारित थी. दूसरी तरफ औरंगजेब का इस्लामी कट्टरवाद और विस्तारवादी नीति थी, जिसमें अन्य धर्मों के लिए कोई स्थान नहीं था.
औरंगजेब की सेनाओं को कई बार दी पटखनी
संभाजी महाराज ने अपने शासनकाल में मुगलों के खिलाफ कई सफल युद्ध लड़े. उन्होंने औरंगजेब की सेनाओं को कई बार परास्त किया और उसकी दक्षिण भारत की योजनाओं को ध्वस्त कर दिया. लेकिन उनकी सबसे बड़ी जीत यह थी कि उन्होंने कभी भी औरंगजेब के सामने सिर नहीं झुकाया.
1689 की अमानवीय घटना
संभाजी महाराज को पकड़ने की कई कोशिशें हुईं, लेकिन वे हर बार मुगलों को मात देकर निकल जाते थे. लेकिन 1 फरवरी 1689 को एक विश्वासघात के कारण उन्हें संगमेश्वर में गिरफ़्तार कर लिया गया. उनके साथ उनके परम मित्र कवि कलश भी पकड़े गए.
इसके बाद जो हुआ, वह भारतीय इतिहास के सबसे बर्बर और हृदयविदारक घटनाओं में से एक है. औरंगजेब ने संभाजी महाराज को इस शर्त पर रिहा करने की पेशकश की कि वे इस्लाम स्वीकार कर लें और मुगलों के अधीन आ जाएं. लेकिन संभाजी महाराज ने साफ इनकार कर दिया.
इसके बाद औरंगजेब ने उन्हें सार्वजनिक रूप से यातनाएं देने का आदेश दिया.
उनकी आंखे निकाल दी गई,
जीभ काट दी गई,
उनकी चमड़ी जिंदा हालत में उधेड़ दी गई.
औरंगजेब यह चाहता था कि संभाजी महाराज तड़प-तड़प कर मरें जिससे मराठाओं का मनोबल टूट जाए. वहीं इस अमानवीय यातना के बावजूद, संभाजी महाराज ने “हर हर महादेव” और “स्वराज्य अमर रहे” के नारे लगाते हुए अपने प्राण त्याग दिए. अंततः, 11 मार्च 1689 को उनकी हत्या कर दी गई और उनका शरीर नदी में फेंक दिया गया.
आज का समय
आज जब औरंगजेब को लेकर अलग-अलग राजनीतिक बयानबाज़ी हो रही है, तब यह सवाल उठता है कि संभाजी महाराज जैसे सच्चे वीरों को हम क्यों नहीं याद करते ?
स्कूलों में इतिहास की किताबों में संभाजी महाराज की शहादत को उचित स्थान नहीं मिला.
महाराष्ट्र और देशभर में संभाजी महाराज के बलिदान पर पर्याप्त चर्चा नहीं होती.
कुछ लोग औरंगजेब को एक ‘न्यायप्रिय शासक’ बताने की कोशिश करते हैं, लेकिन वे उसकी क्रूरता को नजरअंदाज कर देते हैं.
संभाजी महाराज की कहानी सिर्फ एक राजा की नहीं, बल्कि हिंदवी स्वराज्य की आत्मा की कहानी है. उनकी शहादत हमें याद दिलाती है कि हमारी स्वतंत्रता कितनी कठिनाइयों और बलिदानों से मिली है. हमें उनकी गाथा को नई पीढ़ी तक पहुंचाना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि इतिहास को किसी भी राजनीतिक एजेंडे के तहत तोड़ा-मरोड़ा न जाए.