मंदिर बनाया नहीं और ठेकेदार से टेंडर भी वापस ले लिया

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मार्तंड सिंह

राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे ….नब्बे के दशक में अयोध्या(Ayodhya) के राजनितिक गलियारों से लेकर पूरे देश में ये नारा खूब प्रचलित था। अगर सूक्षमता से देखेंगे तो इस नारे में आप को भक्ति से ज्यादा राजनीति दिखेगी।अभी तक के अनुभव के आधार पर तो यही लगता है। इस नारे ने कई पार्टियों की तकदीर बदल दी, कुछ पार्टियों को राजनीति के शिखर पर पहुंचा दिया। धीरे धीरे राजनीति में श्री राम आदर्श बन गए और राम मदिर मुद्दा। इसी मुद्दे ने कई नेताओ को राजनीति का सितारा बना  दिया, तो कई लोग इसी मुद्दे के सहारे धर्म के ठेकेदार बन बैठे।लेकिन इस राजनीति ने अयोध्या से बहुत कुछ छीन लिया। लोगों के बीच अपनेपन की भावना और जुड़ाव सब खत्म हो गया।

बाबरी मस्जिद को जमींदोज कर दिया गया

साल था 1992 दिसंबर का महीना था, यूं तो दिसम्बर में मौसम सर्द होता है पर अयोध्या में एक अलग तरह की गर्मी आ चुकी थी, वो सियासत की गर्मी थी। गर्मी राम मंदिर आंदोलन की थी। किसको पता था कि ये सियासी गर्मी न जाने कितने सालों तक लोगों को तपाएगी। खैर वो दिन भी आया जिसने अपने में मस्त और कलकल बहने वाली सरयू में एक मजहबी रंग घोल दिया। वो तारीख थी 6 दिसंबर 1992 जिसने पूरे देश की राजनीति की गति और दिशा ही बदल दी। बाबरी मस्जिद को मगिरा दिया गया। इसके बाद जो धर्म के नाम पर शुरु हुए इस खेल ने कई ठेकेदारों को जन्म दिया जो आजतक धर्म के नाम पर ठेकेदारी कर रहे हैं। हालांकि 6 दिसंबर की घटना कोई तुरंत लिया गया फैसला नहीं था बल्कि इसकी पटकथा बहुत पहले से लिखी जा रही थी और इस पटकथा को सारे राजनीतिक लोग चाहे वो पार्टी के थे या फिर किसी भी मजहब के लोग थे सब मिलकर लिख रहे थे और लिखे भी क्यों न आखिर इसके बाद उनकी दुकान जो चल निकलने वाली थी।

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राम के नाम पर बीजेपी ने उठाया सियासी फायदा

सितम्बर 1984 में विश्व हिन्दू परिषद् ने अयोध्या में धर्म संसद का आयोजन किया और बाइक रैली निकली। सरयू किनारे हो रही इस संसद में वीएचपी के कार्यकर्ताओं ने प्रण किया कि देश भर से हिन्दुओं को इकट्ठा करके अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण किया जायेगा। धर्म संसद में प्रस्ताव पास हुआ कि 31 अक्टूबर 1984 को मंदिर के निर्माण के लिए नींव रखी जायेगी पर इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद इस प्लान को टाल दिया गया। उस समय प्लान टल गया था पर उसके बाद वीएचपी ने राम मंदिर को लेकर पूरे देश में अपना आंदोलन तेज कर दिया। इसी आंदोलन का नतीजा रहा की अपना राजनितिक भविष्य तलाश रही भारतीय जनता पार्टी को संजीवनी मिल गई, जहां 1984 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को केवल दो सीट मिलीं थी वो 1989 के आम चुनाव में सीधे 85 सीटों पर पहुंच गई।

राम के नाम पर लोगों की राजनीति चमक गई

सितम्बर 1990 में राममंदिर निर्माण के लिए रथयात्रा शुरू की। इसी रथयात्रा ने आडवाणी को एक कट्टर हिंदू की पहचान दी और बीजेपी के सांसदों के आंकड़े को भी बढ़ाया उसे 85 सीटों से 120 पर पहुंचाया। मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, प्रवीण तोगड़िया को भी इसी आंदोलन से पहचान मिली। फिर क्या था ये सब श्री राम के सबसे बड़े भक्त बन गए और राम मंदिर के सबसे बड़े ठेकेदार।

अयोध्या को कैंप कार्यालय बना लिया

सबने अयोध्या(Ayodhya) को एक तरह से अपना कैंप कार्यालय बना लिया। आखिरकार 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचे को गिरा दिया गया और उसके बाद पूरी राजनीति की दिशा ही बदल गई। राजनीति ने जनसमस्या के मुद्दे को छोड़कर राममंदिर का मुद्दा उठाया। भाजपा को भी केंद्र की सत्ता मिल गई तो वही कई क्षेत्रीय पार्टियों को भी इस आंदोलन ने खड़ी करने में मदद की। इस आंदोलन से निकले नेता दो दशकों तक अपना-अपना फ्रंट संभालते रहे। भाजपा में ये युग था अटल बिहारी बाजपाई और लाल कृष्णा आडवाणी का।

नरेंद्र मोदी युग की शुरुआत

राजनीति का दौर बदला और राम मंदिर भाजपा और हिन्दू संगठनो के लिए मुद्दे की बजाय आस्था में परिवर्तित हो गया।अटल और आडवाणी का दौर भी धीरे धीरे खत्म हो गया । साथ ही उन नेताओ का दौर भी धीरे धीरे ढलान पर चला गया जो इस आंदोलन के बाद अपने आप को मंदिर का ठेकेदार कहते थे। अटल और आडवाणी के बाद दौर आया मोदी और शाह का। मोदी और शाह के इस दौर में उस समय के सारे फायर ब्रांड नेताओं को धीरे धीरे किनारे कर दिया गया। चाहे वो लाल कृष्णा आडवाणी हो या मुरली मनोहर जोशी या फिर उमा भारती।

प्रवीण तोगड़िया को किया दरकिनार

हालांकि उमा भारती अभी भी मोदी मंत्रिमंडल में है पर अब वो उतनी एक्टिव नहीं दिखती हैं। यही हाल प्रवीण तोगड़िया का भी है। तोगड़िया को नरेंद्र मोदी का विरोधी माना जाता है, उन्हें भी अब हासिये पर धकेल दिया गया है। अभी हाल ही में हुए वीएचपी के कार्यकारिणी के चुनाव में भी तोगड़िया को हार का सामना करना पड़ा। तोगड़िया और उनके करीबियों को नई कार्यकरिणी में कोई जगह नहीं मिली। इसे एक तरह से विश्व हिन्दू परिषद् में तोगड़िया युग के समापन के तौर देखा जा रहा है। भले ही युग समाप्त हो गया है पर इस आंदोलन ने अयोध्या को सिर्फ और सिर्फ नुकसान ही पहुँचाया है।

राजनीति चमक गई लेकिन भाईचारा खत्म हो गया

इस आंदोलन ने धर्म के नाम पर लोगों को जरुर जोड़ लिया और राजनीति में अपना परचम लहराया, लेकिन अयोध्या वासियों से बहुत कुछ एस आंदोलन ने छीन लिया। किसी का रोजगार चला गया तो किसी का आपसी भाईचारा न जानें कहां खो गया। एक मंदिर बनाने के लिए न जाने कितने मंदिरों पर ताला लग गया जहां आज भी कोई गलती से नहीं भटकता।

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