मिथिला, अंग और मगध की संगम स्थली सिमरिया बना है ‘तपोभूमि’

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अगर आपको यह कहा जाए कि इस कलयुग में भी लोग गंगा तट पर पर्णकुटीर बनाकर जप-तप करते हैं, तो आपको आश्चर्य होगा परंतु यह हकीकत है। बिहार के मिथिलांचल की पवित्र तीर्थनगरी सिमरिया के गंगा तट पर कई लोग गंगा लाभ ले रहे हैं। इस गंगा घाट में राजकीय कल्पवास मेला में कल्पवासियों की भक्ति परवान पर है। यहां आने वाले लोग अपना सब कुछ छोड़ कर गंगा के किनारे बालू के ढेर पर पर्णकुटीर बना कर मां गंगा की भक्ति में लीन हैं। मोक्षदायिनी उत्तर वाहिनी सिमरिया गंगा तट पर श्रद्धालु एक महीने तक पर्णकुटीर बनाकर रहते हैं और सुबह गंगा में स्नान करेंगे।

मान्यता है कि राजा विदेह के समय से ही सिमरिया गंगा नदी तट पर कल्पवास मेले की परंपरा चली आ रही है। तब से अब तक के बदलते परिवेश के बावजूद कल्पवासी कार्तिक माह में बालू के ढेर पर पर्णकुटीर बनाकर एक माह तक गंगा सेवन करते हैं।

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दरभंगा के मनिगाछी की रामरती देवी कहती है कि आतिथ्य सत्कार से बढ़ कर कुछ नहीं है। कल्पवास मेले के दौरान हमेशा संगे-संबंधियों का आना-जाना जारी रहता है। आने वाले लोगों को किसी भी प्रकार की कमी आतिथ्य सत्कार में नहीं होने दी जाती है।

दुधिया रोशनी से जगमग हुआ सिमरिया गंगा घाट राजकीय कल्पवास मेले में इन दिनों कल्पवासियों के पर्णकुटीर सहित आस-पास के क्षेत्रों में बिजली की रोशनी से पूरा गंगा घाट चकाचौंध बना हुआ है। मंगलवार को तुलार्क महाकुंभ के प्रारंभ होने के बाद यहां साधुओं का डेरा भी जम गया है।

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सिद्धाश्रम प्रमुख स्वामी चिदात्मन जी महाराज कहते हैं, “मां गंगा की उत्तरवाहिनी धवलधारा की कलकल करती मधुर धुन के बीच मनोहारी तपोभूमि का अहसास कराती प्रकृति की अनुपम छटा बिखेरे अति विशाल तटीय क्षेत्र सिमरिया की पौराणिकता व अलौकिकता की कथा अनंत है।”

उन्होंने कहा कि वैदिक पौराणिक ग्रंथों एवं ऐतिहासिक तथ्यों में आदि कुंभ स्थली सिमरिया धाम का साफ संकेत है। इस स्थल पर अनादिकाल से चली आ रही कल्पवास की लंबी परंपरा रही है। जनक वंश के अंतिम राजा कराल जनक तक यहां कल्पवास आयोजन होता रहा है। कालांतर में यहां कार्तिक के महीने में कल्पवास का मेला लगता रहा जो आज भी लगता है और राज्य सरकार ने इसकी महत्ता को देखते हुए इसे राजकीय मेला घोषित कर रखा है।

सिमरिया घाट तुलार्क महाकुंभ में संत, महात्मा और विभिन्न अखाड़ों के प्रतिनिधि बड़ी संख्या में भाग ले रहे हैं। उन्होंने बताया कि इस वर्ष 19 अक्टूबर, 29 अक्टूबर और आठ नवंबर को शाही स्नान तय किया गया है। महाकुंभ का समापन 16 नवंबर को होगा।

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बेगूसराय के बुद्धिजीवी कुंदन कुमार बताते हैं कि सिमरिया कुंभ का इतिहास बताता है कि राजा हर्षवर्धन ने 7वीं शताब्दी के आस-पास इसी रास्ते से ओडिशा तक जीत की यात्रा में निकले थे। पुलकेशिन द्वितीय से हार के बाद प्रयाग में 75 दिन का वास कर कुंभ की शुरुआत की थी, जिसके बाद हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और कालातंर में नासिक में कुंभ की शुरुआत की गई।

उन्होंने धार्मिक ग्रंथों का हवाला देते हुए कहा, “इसी कड़ी में देश के 12 स्थलों पर कुंभ की शुरुआत की गई थी। समय, प्रकृति और परिस्थिति के कारण सिमरिया में महाकुंभ की परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो गई, लेकिन उसका एक रूप सिमरिया कल्पवास जो निरंतर प्रतिवर्ष सिमरिया घाट की धरती पर होता रहा है। इसी महाकुंभ को फिर से संत, समाज और सरकार द्वारा जागृत किया जा रहा है।”उल्लेखनीय है कि वर्ष 2011 में भी यहां तुलार्क अर्धकुंभ का आयोजन किया गया था।

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