कभी थे राष्ट्रीय फुटबॉलर, अब चरा रहे हैं गाय

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कभी रहे राष्ट्रीय फुटबॉलर, अब चरा रहे गाय। यह सुनकर शायद आपको यकीन नहीं होगा कि कोई राष्ट्रीय स्तर का फुटबॉल खिलाड़ी चरवाहा कैसे बन गया, लेकिन यह हकीकत है। झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के रहने वाले सरल व शांत स्वभाव के रामचंद्र हांसदा के खेल का ऐसा जादू था कि उनके नाम को सुनकर फुटबॉल के मैदान पर दर्शकों की भारी भीड़ उमड़ पड़ती थी। जिस मैच में वे नहीं खेलते थे वहां आधा खेल देखने के बाद ही दर्शक मैदान छोड़कर घर चले जाते थे।

सरकार से नहीं मिली मदद

रामचंद्र हांसदा राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कई फुटबॉल प्रतियोगिताओं में खेल चुके हैं। लेकिन नौकरी या रोजगार का मौका नहीं मिलने के कारण यह प्रतिभावान खिलाड़ी किसी तरह से अपनी जिदगी गुजार रहा है। उन्हें न तो राज्य सरकार से प्रोत्साहन मिला और न ही केंद्र सरकार से। नतीजा यह है कि आज वे गाय चराते नजर आते हैं।

पिता ने किया प्रोत्साहित

मैदान में उन्हें गाय चराते देखकर जब उनसे फुटबॉल के संबंध में बात की गई तो उनका चेहरा उतर गया। उन्होंने दुखी मन से बताया कि बचपन से ही उनकी फुटबॉल में रुचि थी। उनके पिता कान्हू हांसदा नौकरी करते थे, इसलिए घर में खाने-पीने की कमी नहीं थी। पिता ने उनकी रुचि को देखकर कभी भी खेलने से नहीं रोका बल्कि वे हमेशा उन्हें प्रोत्साहित करते थे।

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नहीं मिला रोजगार

70 के दशक में उन्होंने मऊभंडार के एवरग्रीन क्लब की ओर से फुटबॉल खेलना शुरू किया। धीरे-धीरे कई प्रतियोगिताओं में भाग लिया। एचसीएल आईसीसी में कॉपर ब्लास्टर नाम से एक टीम का गठन हुआ। इस टीम में उनका चयन फॉरवर्ड खिलाड़ी के रूप में किया गया। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आशा थी कि अच्छा खेलेंगे तो अच्छी नौकरी भी मिलेगी, लेकिन यह आशा कभी पूरी नहीं हुई और दो जून रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

जापान दौरे पर हुआ था चयन

1980 में पटियाला स्थित नेशनल इंस्टीट्‍यूट ऑफ स्पोर्ट्स से उनका चयन जापान जाने के लिए हुआ। तत्कालीन अविभाजित बिहार से वे एकमात्र खिलाड़ी थे जिसका चयन किया गया था, लेकिन किसी कारणवश फुटबॉल टीम का जापान दौरा रद्‍द हो गया। बाद में उन्हें एक बार नेपाल में भारतीय टीम से खेलने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने खड़गपुर, कोलकाता, रांची, धनबाद, बड़ौदा व पटियाला समेत कई बड़े शहरों में प्रतियोगिताओं में भाग लिया।

बेटे को नहीं बनाऊंगा खिलाड़ी

इस तरह वे 1990 तक फुटबॉल खेलते रहे, लेकिन जब उन्हें सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली तो वे निराश हो गए और अपने परिवार के लालन-पालन के लिए खेती कर जीवन-यापन करने लगे। सरकारी उपेक्षा का दंश झेल चुकने पर उन्होंने कहा कि मेरी जिस तरह दुर्दशा हुई है वह मेरे बेटे की न हो। इसलिए अपने बेटे को फुटबॉल या अन्य किसी खेल की ओर नहीं जाने दूंगा।

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